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१. न्यायवाक्य में तीन ही पदों का प्रयोग होता है। २. प्रत्येक न्यायवाक्य में तीन ही वाक्य रहेंगे। ३. हेतु पद कम से कम एक बार अवश्य सर्वांशी होगा। ४. जो पर आधार वाक्य में असर्वाशी है वह निष्कर्ष वाक्य में सर्वाती
कभी नहीं हो सकता। ५. यदि दोनों भाषारवाक्य निषेधात्मक हों,तो कोई निष्कर्ष नहीं निकलता। ६. यदि भाषार-वाक्यों में एक भी निषेधात्मक हो तो निष्कर्ष अबस्य
निषेधात्मक होगा। ७. यदि दोनों बाधार-वाक्य विधानात्मक हों तो उनका निष्कर्ष भी
विधानात्मक ही होगा। ८. यदि दोनों मापार-वाक्य 'विशेष' हों तो कोई निष्कर्ष नहीं निकलता । ९. यदि दो बाधार वाक्यों में एक 'विशेष' हो तो निष्कर्ष भी अवश्य
'विशेष' होगा। १०. यदि विषेयवाक्य विशेष और उद्देश्य-वाक्य निषेषात्मक हो तो उनसे
कोई निष्कर्ष नहीं निकल सकता। भारतीय दर्शन में बनुमान :
जैन दर्शन क्या भारतीय दर्शनों में अनुमान के साधारणतः दो भेद किये गये है- स्वानुमान और परार्यानुमान । बाचार्य हेमचन्द्र ने स्वार्वानुमान के पांच प्रकार बताये है-स्वभाव, कारण, कार्य, एकापसमवायी और विरोपी। (प्रमाणमीमांसा,१.२.१२)। सानुमान व्यक्ति में दूसरे को सहायता के बिना ही उत्पन होता है। परानुमान इसके विपरीत होता है। भारतीय न्यायशास्त्र में परानुमान के अवयवों के विषय में मतैक्य नहीं। सांस उसके तीन अवयव मानता है- पन (प्रतिज्ञा), हेतु मोर उदाहरण । मीमांसक पार अपवयों को स्वीकारत-पा, हेतु, उदाहरण और उपनय । नयाविक इसमें निममनबीर सम्मिलित कर देते है। जैन मुस्थतः पक्ष और हेतु को मानते.है। पर बावश्यक होने पर ख बबलों तक प्रयोग किया जा सकता है । भाषापतमारतीय न्यांपशाब में पांच अक्षयों का प्रयोग होता है- .. १) प्रतिमा-सग्निमान् है।) २) योकि मापूनवान है। भ रल्यावहाँ घूत्र होता है, वहां-वहाँ बनि होती है, वैसे रखोईपर।
1. देखिए, पानापान, नदीप काप, विनका प्रहार कवि मारला