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२०१ विषयत्व और बसत्प्रतिपक्षत्व । बौर पञ्चरूपों में से अबाधितविषयत्व को पक्ष में अन्तर्भूतकर बोर असत्प्रतिपक्षत्व को बनावश्यक बताकर मात्र 'जिस्म' मानते हैं । नैयायिक भी हेतु के तीन रूप मानते हैं पर उनके नाम भिन्न हैअन्वयन्यतिरेकी, केवलान्वयी और केवलव्यतिरेकी।
जैन दार्शनिक मात्र 'अन्यथानुपपत्ति' को ही हेतुरूप मानते हैं । साम्य के अभाव में हेतु का न पाया जाना ही 'अन्यथानुपपत्ति' है । यह विपक्षव्यावृत्तिक है । उसके होने पर पक्षधर्मच और सपक्षसत्व की भी बावश्यकता नहीं । बकलंक ने स्पष्ट लिखा है
अन्यथानुपपनत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ?
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ? हेतु' के प्रकार भी विवाद के विषय हैं । न्याय-पैशेषिक हेतु के पांच प्रकार मानते है-कारण, कार्य, संयोगी, समवायी और विरोधी। इन पांच हेतुबों को ही बनुमान का अंग माना गया है। सांख्य हेतुओं के सात भेद बतात हैमात्रा, मात्रिक, कार्यविरोषी, सहचरी, स्वस्वामी और बध्यपातसंयोगी । बीड हेतु के दो ही भेद मानते हैं-कार्य हेतु और स्वभावहेतु । जैन दर्शन भी हेतु के सामान्यतः दो रूप ही मानता है पर उसके नाम पृषक है-उपलबिम गीर अनुपलग्धिस्प । इन दोनों में प्रत्येक के छह-छह भेद है-कार्य, कारण, व्याप्य, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर । इनमें अविनामावस हेतु ही प्रमुबह दो उक्त दोनों हेतु रूपों में विद्यमान है। अतः जैनदर्शन ने 'अविनामाव' रूप हेतु ही स्वीकार किया है। अनुमान के मेव:
अनुमान के दो भेव है-स्वार्थ और परार्थ ।' परोपवेश के बिना निश्चित अथवा अविनाभावी साधनों के द्वारा होने वाला साध्य का ज्ञान '
स्वानुमान' है बौर परोपदेश से साधनों द्वारा होने वाला साध्य शान 'परानुमान है।' स्वानुमान में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर बवलम्बित नहीं रहता । उसके अविनाभावी साधनों में कुछ सहभावी होते है और कुछ क्रममापी । रूपबीर रस जैसे साधन सहभावी होते हैं जिनमें एक को देखकर दूसरे का अनुमान हो पाता है। कृत्तिका के उदित होने पर शकट का उदय होना क्रममावी साधन
सायबाकि २. न्यायविनिश्चय, १२वलसंग्रह में यह श्लोक पास्वामी के नाम से उपर है। १. स्वा स्वनिश्चितसाम्मानिनामावणा साधनात् सामान
प्रमाणनीमांसा, १...यानीपिका..१-७२ . पोचवावनाविपाक्यः पार्षद न्यावीपिका, ९८५