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सम्बन्ध । पर न्याय और सांस्य परम्परायें अनुमान के तीन भेद मानती हैपूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतो दृष्ट ।।
बौद्ध परम्परा प्रारम्भ में तो वैदिक परम्परा का अनुकरण करती हुई दिखाई देती है पर बाद में दिखनाग ने उसका खण्डनकर अपनी मान्यता प्रस्थापित की जिसे उत्तरकालीन बौदाचार्यों ने स्वीकार किया।
जैन परम्परा ने प्रारम्भ में तो नैयायिकों के अनुसार अनुमान के तीन भेद किये पर बाद में बौद्ध परम्परा से प्रभावित होकर सिद्धसेन और अकर्मक' ने उनका खण्डन किया और अपने अनुसार अनुमान के लक्षण, भेद आदि की व्यवस्था की। उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने उसे और भी स्पष्ट करने का प्रयत्न किया। उनमें आचार्य हेमचन्द्र ने एक नये चिन्तन का सूत्रपात किया । अनुमान के लक्षण में तो उन्होंने सिद्धसेन आदि का अनुकरण किया पर उसके भेदों के सन्दर्भ में अनुयोगद्वार का साथ दिया । साथ ही वैदिक परम्परा के त्रिविष अनुमान की खण्डन परम्परा को भी छोड़ दिया। आगम परम्परा और तार्किक परम्परा के बीच जो असंगति दिखाई देने लगी थी-उसका परिहार हेमचन्द्र ने किया। उपाध्याय यशोविजय ने भी हेमचन्द्र का अनुकरण किया।
जैनाचार्यों ने अनुमान का लक्षण इस प्रकार स्थापित किया
साधन (लिंग) से साध्य (लिंगी) का ज्ञान होना अनुमान है। जैसेधूम से अग्नि का ज्ञान होना । यहाँ अग्नि की स्थिति में घूम का अविनाभाव सम्बन्ध है । इसमें प्रत्यक्ष ज्ञान होने के बाद सादृश्य प्रत्यभिज्ञान होता है और फिर साध्य का अनुमान होता है। साध्य के साथ साधन की अविनामाव स्थिति को ही अकलंक ने 'अन्यथानुपपत्ति' कहा है। साधन के लिए 'हेतु' शब्द का भी प्रयोग होता है।
हेतु के स्वरूप के विषय में दार्शनिकों के बीच मतैक्य नहीं । नैयायिक हेतु को पञ्चरूप मानते हैं-पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व, विपक्षव्यावृत्ति, अवाधित
१. तिविहे पणते व बहा-पुम्बवं, सेसवं. विदुसाहम्मवं-बनुयोगवार, प्रमाणवार. २. सायाविनामूवो लिङ्गात्साध्यविनिश्चायकं स्मृतम् । अनुमानम् -न्यायावतार, ५. , 1. न्यावपिनिकषय, २.१५१-१७२. १.पनि बीर चिन्तन, पृ. १७८९. ५. साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानम् परीलामुख, ३.१४.
पपानुपपत्येवलक्षणं लिखमम्पते प्रमाणपरीजा, प..२