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को ही तर्क' कहा गया है। 'व्यप्ति' का तात्पर्य है-साध्य वीर साधन का विनाभाव सम्बन्ध । और 'अविनाभाव' सम्बन्ध का तात्पर्य है-साध्य के होने पर ही सापन का होना और साध्य के न होने पर साधन का नहीं होना । सिद्ध किया जाने वाला पदार्थ 'साध्य' कहलाता है और जिसके द्वारा सिद्ध किया जाता है उसे 'सापन' कहा जाता है। बग्नि और धूम का सम्बन्ध देखा जाने पर यह निश्चय हो जाता है कि जहां अग्नि होगी वहाँ धूम होगा । यहाँ अग्नि 'साध्य' है मार धूम साधन है। और इन दोनों का सम्बन्ध 'मविनाभाव है। इसी बपिनामाव सम्बन्ध का निश्चय करता तर्क है।
बोर, मीमांसक और नैयायिक तर्क को स्वतन्त्र प्रमाण नहीं मानते। मीमांसक तर्क के स्थान पर 'ऊह' का प्रयोग करते हैं और उसे प्रमाण का सहायक मानते हैं। नैयायिक भी उसे उपयोगी और प्रमाणों का अनुग्राहक मानते हैं। उन्होंने तर्क को षोड़श पदार्थों में सम्मिलित कर दिया है। बोडों के अनुसार चूंकि तर्क प्रत्यक्ष के पीछे चलने वाला है अतः वह विकल्प मात्र है। उसे प्रमाण नहीं कहा जा सकता। परन्तु जैन दार्शनिक इन तकों को स्वीकार नहीं करते । वे कहते हैं कि अनुमान की आधारशिला रूप व्याप्तिशान को कैसे अस्वीकार किया जा सकता है ? साध्य और साधन की व्याप्ति को किसी भी प्रत्यक्ष से नहीं जाना जा सकता । व्याप्तिज्ञान हुए बिना अनुमान प्रमाण हो नहीं सकता। अतः तर्क को पृथक् प्रमाण के रूप में स्वीकार करना मावश्यक है। वह भी अविसंवादी है।
४. अनुमान प्रमाण:
चार्वाक् को छोड़कर शेष सभी दार्शनिक सम्प्रदायों ने अनुमान को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार किया है। जैनों ने उसे स्वतन्त्र प्रमाण मानकर भी परोक्ष की सीमा में रखा है। इसका इतिहास वैदिक परम्परा से प्रारम्भ होता है। जैन और बौर परम्पराबों ने वहीं से उसे ग्रहण किया है। साधारणतः व्याप्तिमान को 'अनुमान' कहा गया है।
प्रत्वन के पिना अनुमान हो नहीं सकता । न्यायसूत्र में तत्पूर्वकम् (१.१.५) सत्र द्वारा इसी को सष्ट किया गया है । वैशेषिक और मीमांसक परम्परागों में अनुमान के दो भेद मिलते हैं-प्रत्यक्षती दृष्ट सम्बन्ध और सामान्यतो दृष्ट
१. उपलम्मानुपलम्ननिमित्तं व्यापिनानसमूहः -प्रमाणमीमांसा, १.२.५. २. न्यावनाप्य, १.१.१. १. प्रमाणवातिक, मबोस पुरती...,