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पदि स्मति को प्रमाण नहीं माना जाता तो समस्त व्यवहार बोर मनुमान समकालो स्मृति पर ही विशेषतः नवलम्बित हैं, निराधार हो जाने अतः मति को प्रमाणकोटि से बाहर नहीं किया जा सकता। २. प्रत्यभिज्ञान :
प्रत्यक्षतः किसी वस्तु को देखकर उसी के विषय में अतीत का स्मरण मा जाना कि 'यह वही है', प्रत्यभिज्ञान कहलाता है । उसके अनेक प्रकार होते हैं। जैसे-एकत्व, सादृश्य, वैसादश्य, प्रतियोगी, आपेक्षिक आदि । उदाहरणतः गौ के समान यह गवय है, गाय से मैंस विलक्षण दिखती है । आदि प्रकार के ज्ञान स्मृति ज्ञान पर अवलम्बित होते हैं। अतः उन्हें हम अप्रमाण नहीं कह सकते।
प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष और स्मृति का संकलनात्मक रूप है। क्षणिकवादी बीर इसीलिए उसे प्रमाण नहीं मानते। वे उसके प्रत्यक्ष और स्मृति को स्वतन्त्र ज्ञान स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि यह प्रमाण धारावाही शान की तरह ग्रहीतग्राही है । परन्तु यह मन्तव्य सही नहीं। वस्तुतः अनुमान प्रमाण सादृश्य प्रत्यभिज्ञान पर अवलम्बित है । एकत्व प्रत्यभिज्ञान भी ऐसा ही है। चित्रज्ञान में जिस प्रकार नील-पीतादि अनेक रूपों की प्रतीति होती है उसी प्रकार प्रत्यभिज्ञान में भी प्रत्यक्ष और स्मृति प्रमाणों का बस्तित्व निर्विरोध बना रहता है। दर्शन और स्मरण के होने पर ही प्रत्यभिज्ञान की उत्पत्ति होती है।
मीमांसक और नैयायिक प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण में अन्तर्भूत करते है और पृषक रूप से उपमान प्रमाण की सृष्टि करते हैं। परन्तु प्रत्यभिज्ञान, जो प्रत्यक्ष और स्मृति का संकलित रूप है, को प्रत्यक्ष में कैसे गभित किया जा सकता है ? उनका उपमान प्रमाण अवश्य सादृश्य प्रत्यभिज्ञान के अन्तर्गत मा जाता है।
वस्तुतः प्रत्यभिज्ञान को इन्द्रियजन्य न मानकर संकलनात्मक मानना प्राहिये। वह अबाषित, अविसंवावी और समारोप का विच्छेक है । अतएव प्रमाण है।
तर्फका सम्बन्ध दार्शनिक क्षत्र में व्याप्ति से रहा है और व्याप्ति के शान १. वन स्मरणकारण संकलनं प्रत्यभिज्ञानम् । तदेवेवं, तत्सवणं, बलिसणं,
पत्थतियोगीत्यादि-परीनामुन, १५. २.पावनम्बरी,. १. कपातिक, ४.२१२-२१ मा १.१...