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१. प्रत्यक्ष प्रमाण जनदर्शन में बौद्धों के समान प्रमाण-संख्या दो स्वीकार की गई है, परन्तु वहाँ प्रमाण के नामों में अन्तर है। वे हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। बागमों में प्रमाणों की संख्या कुछ और अधिक है पर वे वस्तुतः इन दोनों के भेद-प्रभेद ही है। ठाणांगसूत्र में प्रमाण को ' हेतु' (हेऊ) शब्द में व्यवहृतकर उसके चार भेद बताये गये हैं-प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान और आगम । वहीं निक्षेप पति से भी उसके चार भेद किये गये हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और जीव' अनुयोग द्वार में ज्ञान और प्रमाण को समन्वित करने का प्रयत्न किया गया पर वह स्पष्ट नहीं हो पाया । समूचे आगमों के अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बागमकाल में स्वतन्त्र जैन दृष्टि से प्रमाण की चर्चा नहीं हुई। अनुयोग द्वार में ज्ञान कोप्रमाण कहकर भी स्पष्ट रूप से जैनागम में प्रसिद्ध पांच शानों को प्रमाण नहीं कहा गया है । इतना ही नहीं, बल्कि जैन दृष्टि से शान के प्रत्यक्ष और परोक्ष एंसे दो प्रकार होने पर भी उनका वर्णन न करके दर्शनान्तर के अनुसार प्रमाण के तीन या चार प्रकार बताये गये हैं। अतएव स्वतन्त्र जैन दृष्टि से प्रमाण चर्चा की आवश्यकता बनी हो रही।। स्वरूप और मेव का इतिहास :
भागमकाल में 'ज्ञान' को भी प्रमाण माना जाता था और इसलिए वहाँ ज्ञान के ही भेद-प्रभेद किये गये। धवला में 'प्रमाण' शब्द तो आया है पर वहाँ निक्षेप रूप से उसके पांच भेद किये गये- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और नय । भाव के पुनः पाँच भेद हुए- मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान । आचार्य कुन्दकुन्द ने शान के ही दो भेद माने हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। बात्मसापेक्ष मान प्रत्यक्ष है और इन्द्रिय सापेक्ष ज्ञान परोक्ष है। इन्द्रियां पौद्गलिक है और वे आत्मा से भिन्न हैं। उनको आत्मा से भिन्न मानना ही प्रत्यक्ष की साधना हैं। इन्द्रियों को मात्मा से भिन्न मानने पर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है, कि जैनधर्म के अनुसार आत्मा का प्रदेश शान गुण से मालावित है। भात्मा को छोड़कर शान अन्यत्र कहीं रह नहीं सकता। इसलिए आत्मा प्रत्येक पदार्थ को जानने की शक्ति रखता है। अन्य पदार्यों को जानते समय मात्मा या ज्ञान अन्य पदार्थों में प्रविष्ट नहीं होता । आत्मा अपने प्रदेशों में स्थित रहता है
१. ठाणांगसूत्र, ३३८ २. वही, सूत्र २५८ ३. बागम युग का पैनदर्शन, पृ. २१७-८. ४. पवला-१.१.१.८०.२ ५. प्रवचनसार १.५७-५८; विशवः प्रत्यक्षम्, प्रमाणमीमांसा, १.१.१५