________________
२०.
उत्तरकालीन साहित्य में सर्वशता की सिद्धि को दर्शन और तर्क के माध्यम से परिवेष्ठित किया गया। भाचार्य समन्तभद्र ने इस तर्क परम्परा को प्रारम्भ किया और बाद में उनके तकों में और भी तर्क जुड़ते गये। समासतः सर्व-सिद्धि में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये गये
_i) जो माप्त होगा वही सर्वज्ञ हो सकता है। आप्त वही हो सकता है जो निर्दोष हो और जिसके वचन युक्ति और मागम से विरुद्ध नहीं हों। मानावरणादि कर्मों के नष्ट होने पर अज्ञान के व्यामोह से आत्मा विमुक्त हो जाता है और अतीत, अनागत और वर्तमान पदार्थों को जानने-देखने लगता है। ___ii) सूक्ष्म (परमाणु आदि), अन्तरित (राम, रावण मादि), और दूरवर्ती (सुमेरु आदि) पदार्थ किसी न किसी पुरुष के प्रत्यक्ष अवश्य हैं क्योंकि वे हमारे अनुमेय हैं। जो पदार्थ अनुमेय होते हैं वे किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य होते हैं। जैसे पर्वतवर्ती अग्नि के अस्तित्व को हम अनुमान से जानते हैं और पर्वतस्थ व्यक्ति उसे प्रत्यक्ष रूप से जानता है। इसी प्रकार सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ भी किसी न किसी के प्रत्यक्ष है। यह प्रत्यक्ष दृष्टा कर्म विमुक्त अनन्तज्ञानी सर्वज्ञ ही हो सकता है।
सूक्ष्मान्तरितदूराः प्रत्यक्षाः कस्यचिद् यथा। अनुमेयत्व तो ऽग्न्यादिरिति सर्व-संस्थितिः ॥'
iii) सर्वज्ञ की सिद्धि में कोई बाधक प्रमाण नहीं बल्कि प्रमाणाभास है । सर्वज्ञ-निषेध के सन्दर्भ में प्रस्तुत किये गये प्रमाणों का यहाँ खण्डन किया गया है। प्रमाण के मेव:
जैसा हम उपर कह चुके हैं, जैनधर्म में सम्यग्ज्ञान को प्रमाण माना गया है। दार्शनिक क्षेत्र में प्रमाण के अनेक प्रकार से भेद किये जाते हैं। चार्वाक् मात्र प्रत्यक्ष को प्रमाण मानता है। वैशेषिक और बौद्ध प्रत्यक्ष और अनुमान को स्वीकार करते हैं। सांस्य प्रमाण के तीन भेद मानते हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान और चन्द (आगम) । नैयायिक इनकी संख्या चार कर देते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और उपमान।और मीमांसकों ने इन्हीं में अर्यापत्ति और अमाव जोड़कर प्रमाण संख्या छह तक पहुँचा दी है।
१. बाप्तमीमांसा २. वही, ५ ३. अष्टसहनी, पृ. ४९-५० सिविविनिरूपवटीका, पृ. २१