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और पदार्थ अपने प्रदेशों में । यह उसी प्रकार से होता है। जैसे नेत्र अपने स्थान पर स्थित रहता हुआ ही अन्य पदार्थों में पाये जाने वाले रूप का दर्शन कर लेता है । जैसे दर्पण अपने में प्रतिबिम्बित पदार्थ के आकार रूप नहीं बदलता वैसे ही ज्ञान पदाथों को जानता हुमा भी तदाकार नहीं होता।
जयसेनाचार्य ने पञ्चास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति में कुन्दकुन्दाचार्य की छः गाथाबोंका उल्लेख किया है जिनमें ज्ञान के प्रकारोंका विवेचन किया गया है। उनमें उन्होंने मतिज्ञान के तीन भेद किये हैं- उपलब्धि, भावना और उपयोग। उमास्वामी ने इन्हीं को संक्षेप में लब्धि और उपयोग कहा है । साथ ही मतिशानादि को प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों में विभाजित कर दिया।
उमास्वामी के बाद दार्शनिक चिन्तन दूतगति से बढ़ने लगा। समन्तभद्र सिद्धसेन, वसुबन्धु, दिखनाग, कुमारिल,वात्सायन आदि जसे धुरन्धर चिन्तकों में उसके विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। प्रमाण का क्षेत्र भी उससे अछूता नहीं रहा । अभी तक इद्रियजन्य ज्ञान मतिज्ञान को परोक्ष बोर अतीन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष माना जाता था। यह मान्यता व्यवहारतः बड़ी बटपटी-सी लगती थी। इसलिए जब उसकी आलोचना अधिक होने लगी तो जैन दार्शनिकों ने प्रस्तुत विषय पर और भी गंभीरता पूर्वक सोचा और समाधान प्रस्तुत किया । सर्वप्रथम अकलंक ने प्रमाण के भेद तो वही माने पर प्रत्यक्ष को दो अंगों में विभक्त कर दिया। सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्षिक प्रत्यक्ष अथवा मुख्य प्रत्यक्ष। मतिज्ञान को सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहकर उन्होंने जैनदर्शन को लोकव्यावहारिक दोष से भी बचा लिया और परम्परा का भी संरक्षण कर लिया।
अब प्रश्न था स्मृति आदि प्रमाणों का । अकलंक ने इस प्रश्न के समाधान के लिए सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष के दो भेद माने-इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष । मतिज्ञान को इन्द्रिय प्रत्यक्ष के अन्तर्गत रखा और स्मृति आदि को अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के। पर उन्होंने उसमें एक शर्त लगा दी । यदि इन स्मृति मादिमानों का शब्द के साथ संसर्ग हुआ तो उनका अन्तर्भाव परोक्ष प्रमाण में होगा।
अंकलक के उत्तरकालीन आचार्य अनन्तवीर्य, विद्यानन्द आदि टीकाकारों ने १. वही, १२५-३२ २. बाचे परोनम्, प्रत्यक्षमन्यत्, तत्वार्यसूत्र,१-११-१२ ३.मानमा मितः संज्ञा चिन्ता पामिनिबोधनम् माद नाम योजना श्रुतं भवानुयोधनात् ॥ कषीयस्वय,१०॥