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सम्यग्ज्ञान प्रयत्नों की विशुद्धता पर निर्भर करते हैं । प्रयत्नों की पिशुद्धता को ही दार्शनिक परिभाषा में 'सम्यक्चारित्र' कहते हैं । सम्यक्चारित होने पर दर्शनमोह विगलित हो जाता है और केवलज्ञान अथवा सर्वज्ञत्व प्रगट हो जाता है । पालि त्रिपिटक में महावीर को 'मानवादिन्' कहा गया है।' मान और पर्सन की युगपत् अवस्था :
जैनधर्म के अनुसार मात्मा का स्वभाव उपयोग है जौर उपयोग का लक्षण शान मोर वर्शन है । 'जाणदि पस्सदि' और 'जाणमाणे पासमाणे' जैसे शब्दों के प्रयोग से यह प्रतीत होता है कि प्रारम्भ से ही आत्मा के गुणों के रूप में मान और दर्शन का प्रयोग होता रहा है। यह उपयोग दो प्रकार का हैसाकार और निराकार। साकार उपयोग ज्ञान है और निराकार उपयोग बर्मन है । साकार उपयोग में पांच प्रकार का ज्ञान होता है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिमान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । निराकार उपयोग के चार मंद है-बलदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, और केवलदर्शनावरण। बेतना अथवा उपयोग का विकास ज्ञानाकार अथवा जंयाकार के रूप में होता हैं। हम यह सकते हैं कि ज्ञान साकार ज्ञान है और दर्शन निराकार ज्ञान है। प्रज्ञापनासूत्र में भी उपयोग को साकार और निराकार के रूप में बताया गया है।
भाचार्य कुन्दकुन्द ने दर्शन को 'दिट्टी अप्पपयासयाचेव' कहकर उसे मात्मा का उद्घाटक कहा है और आत्मा, ज्ञान और दर्शन को समानार्थक बताया है। वीरसेन के अनुसार शान पदार्थ के बाहय तत्त्व को प्रकाशित करता है जबकि दर्शन आन्तरिक तत्त्व को।' सिद्धसेन दिवाकर दर्शन को सामान्य का ग्राहक और ज्ञान को विशेष का ग्राहक बताते हैं । इस समय तक वन का मर्व पदार्थ के सामान्य तत्व का ग्रहण हो गया था।
इससे स्पष्ट है कि दर्शन का तात्पर्य मूलतः आत्मप्रकाशक था। यही कारण है कि मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान जब कभी गलत भी हो सकते हैं जबकि उनसे पूर्व उत्पन्न होने वाले चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन
१. अहं बनन्तन मानेन अनन्तं लोकं पान पस्सं पिहरामि, बंगुत्तरनिकाय, ४, पृ. १२९. 2. समं पाणवि पस्सवि विहरवित्ति-प्रकृति अनुः पाणमाणे एवं ष णं बिह-बाधाराब,
अवस्कन्ध, २. ... ३. नियमसार.१. ४. पवळा, १.१.४ ५. सन्मतितकं प्रकरण, २.१