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गलत नहीं हो सकते । यदि विशेष को पदार्थ के सामान्य तत्त्व का ग्राहक माना जाय तो उसके दर्शन में निश्चित ही संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय दोष उत्पन्न होंगे और दर्शन को, ज्ञान के समान, दर्शन-अदर्शन आदि रूप में विभाजित करना पड़ेगा । यदि दर्शन को भात्मप्रकाशक स्वीकार कर लिया जाय तो हम इस दोष से मुक्त हो जायेंगे।
पूज्यपाद देवनन्दी ने सर्वार्षसिदि में इस आशय को ताकिक शब्दावली में प्रस्तुत किया है । उन्होंने दर्शन को प्रमाणकोटि में रख दिया । दर्शन को प्रमाण माना जाय या नहीं, यह विद्वानों के समक्ष एक समस्या थी । अभयदेवसूरि ने कहा कि ज्ञान के समान दर्शन को भी प्रमाणकोटि में रखा जाना चाहिए। माणिक्यनन्दी' और वादिदेवसूरि' ने उसे प्रमाणाभास माना है।
पालि साहित्य में, जैसा हम पीछे देख चुके हैं, महावीर को अनन्तदर्शन और अनन्तज्ञानवान् कहा गया है। जैनागमों में भी 'जाणमाणे पासमाणे, 'जाणदि पस्सदि' जैसे अनेक उद्धरण मिलते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि किसी एक विषय में दर्शन और ज्ञान युगपत् हो सकता है ।
उत्तरकाल में श्वेताम्बर आचार्यों ने यह अभिमत व्यक्त किया किशान और दर्शन चूंकि चेतना के कार्य हैं और चेतना के दो कार्य युगपत् हो नहीं सकते अतः ज्ञान और दर्शन क्रमशः प्रगट होते हैं।
दिगम्बर आचार्य एक स्वर में ज्ञान और दर्शन को युगपत् मानते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट कहा है कि जिस प्रकार सूर्य में प्रकाश और उष्णता युगपत होती है उसी प्रकार केवली में ज्ञान और दर्शन युगपत् प्रगट होता है।' उमास्वामि', पूज्यपाद , अकलंक', विद्यानन्द' आदि आचार्य भी उनके मत को निर्विरोध रूप से स्वीकार करते हैं।
ज्ञान और दर्शन की उत्पत्ति युगपत् होती है अथवा क्रमशः इस विवाद में आचार्य सिबसेन दिवाकर ने 'अभेदवाद' की स्थापना की है। उनका मन्तव्य है कि दर्शन सामान्यग्राही है और ज्ञान विशेषग्राही। पदार्थ के विशेष तत्व
१. सन्मतितर्क प्रकरण, पृ. ४५८ २. परीक्षामुख, ६.१ ३. प्रमाणनयतत्त्वालोक, ६.२५ ४. नियमसार, १५९ ५. तत्वापसूत्र, २.९ १. सर्वासिखि, २९ ७. तपार्षपातिक, २९ ८.बबाहली, पृ. ५५