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मंका, कामा, विनिन्दा और मन तथा वचन से सम्यक्दृष्टि की प्रशंसा करना से सम्यग्दर्शन की हानि के कारण है। निःशंकित, नि:कांक्षित, निविचिकित्सा, बमूददृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और मार्गप्रभावना ये सम्यक्त्व के बाठ बंग हैं जिनसे वह दृढ़ होता चला जाता है। इसके दो भेद होते हैंनिसर्गज जो स्वभावतः उत्पन्न हो जाता है और अधिगमज जो उपदेशादिक बाहप कारणों से उत्पन्न होता है ।
सम्यग्दर्शन धारक जीवों की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के दो भेद किये गये हैं-सरागसम्यग्दर्शन जो दसवें गुणस्थान तक रहता है और वीतराग सम्यग्दर्शन जो उसके ऊपर के गुणस्थानों में रहता है। औपशमिक, क्षायिक और बायोपशमिक ये तीन भेद भी सम्यक्त्व के किये जाते हैं जिनके विषय में भागे वर्णन किया गया है। ये भेद अन्तरंग कारणों की अपेक्षा से किये गये हैं। जो सम्यग्दर्शनमिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी कोष, मान, माया, लोभ, इन सात प्रकृतियों के उपशम से होता है उसे 'औपशमिक सम्यक्त्व' कहते हैं। जो इन सात प्रकृतियों के क्षय से होता है उसे 'सायिकसम्यक्त्व' कहते हैं और जो इनके क्षयोपशम से होता है उसे 'क्षायोपशमिक सम्यक्त्व' कहते हैं। ये तीनों सम्यग्दर्शन सब गतियों में पाये जाते हैं। बाहपनिमित्तों की दृष्टि से सम्यक्त्व के दस भेद किये गये हैं-आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ़, और परमावगाढ़ ।' __सम्पदर्शन की प्राप्ति के लिए आप्त की पहिचान होना आवश्यक है। माप्त वीतराग ही सच्चा देव, सच्चा गुरु और सच्चा शास्त्र हो सकता है। देव मृढता, गुरु मूढता और लोक मूढता ये तीन मूढतायें हैं। ज्ञान, आदरसम्मान, कुल, जाति, बल, ऐश्वर्य, तप और शरीर इन आठ विषयों का अभिमान करना बाठ मद हैं। कुदेव, कुगुरु और कुशास्त्र तया उनके धारकों को मानना ये छ: अनायतन हैं। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि आठ दोष हैं। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव इन पच्चीस दोषों से विरहित होता है । लम्पसान मोर सम्पचारित्र :
यह सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान की आधार शिला है। वस्तुओं को यथारीति बसा का तैसा जानना सम्यग्ज्ञान है। इसे मनुष्यों का तुतीय नेव कहा गया है। हेयोपादेय का विवेक कराना इसका मूल कार्य है। सम्यग्दर्शन और १. शंकाकांक्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रपांसा-संस्तवाः सम्यग्वृष्टेरतीचाराः,
तत्त्वार्षसूत्र, ७.२३ २. उपासकाध्यवन, २३४