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५. माकाराय:
आकाश का कार्य अवगाहन करना है, स्थान देना है। वह भमूर्तिक, बखण्ड, नित्य, सर्वव्यापक और अनन्तप्रदेशी द्रव्य है। उसमें जीव और पुद्गल को एक साथ अवकाश देने की क्षमता है। उसकी यह क्षमता कभी भी समाप्त नाहीं होती । आकाश के दो भेद है-लोकाकाश बोर अलोकाकाश । लोकाकाश में जीवादि पाँच द्रव्यों का अस्तित्व रहता है पर बलोकाकाश द्रव्य हीन है। लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है और अलोकाकाश अनन्तप्रदेशी है। भारतीय दर्शन में माकाश :
न्याय-वैशेषिक दार्शनिक शब्द को आकाश का गुण मानते हैं पर यह ठीक नहीं । शब्द तो पोद्गलिक है । उसे रेडियो आदि के रूप में रोका और भरा जा सकता है । तब शब्द के आधार पर आकाश को नहीं पहचाना जा सकता।
सांख्य आकाश को प्रधान का विकार मानते हैं। सत्, रज, और तम न्यूमों की साम्यावस्था रूप प्रधान में उत्पादन का स्वभाव है और आकाश भी उसी स्वभाव का अंग है। पर उनका कथन सही नहीं दिखता। क्योंकि जिस प्रकार घड़ा प्रधान का विकार होकर अनित्य, मूर्त और असर्वगत है उसी प्रकार आकाश को भी होना चाहिए । अथवा आकाश की तरह घट को नित्य, ,अमूर्त और सर्वगत होना चाहिए पर है नहीं ।
बौददर्शन आकाश को 'असंस्कृत' पदार्थ मानता है जिसमें उत्पादादि नहीं होते। पर आकाश को हम अभाव रूप नहीं मान सकते। उसमें अगुरुलघु गुणों की हानि-वृद्धि देखी जाती है । उसे आवरणाभाव रूप भी स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि जिस प्रकार नाम और वेदना आदि अमूर्त होने से .अनावरण रूप होकर भी सत् है उसी प्रकार आकाश को भी.सत् मानने में - कौनसी आपत्ति हो सकती है ? पाश्चात्य वर्णन में माकारा :
पाश्चात्य दर्शन में इस संदर्भ में दो मत प्रचलित हैं । कुछ दार्शनिक आकाश को बाहयगत (objective space) मानते है और कुछ उसे विषयीगत (subjective space) मानते हैं। प्रथम पक्ष में न्यूटन और देकार्ते का नाम उल्लेखनीय है और द्वितीय पक्ष में लाइवनीज, बर्कले, हयूम, मादि दार्शनिक जाते हैं । कान्ट अतिवादी हैं और हेगल समन्वयवादी हैं ।
१. बाकाशस्यावगाहः, तत्वार्थसूत्र, ५.१८.; भगवतीसूत्र, १३.१४,