________________
३-४. धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य :
धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य जैनदर्शन के विशिष्टि पारिभाषिक शब्द हैं । उनका सम्बन्ध साधारण तौर पर प्रचलित धर्म और अधर्म के अर्थ से नहीं है, बल्कि वे जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति में सहकारी कारण हैं। । जैसे मछली के तैरने में जल उपकारक होता है, जल के अभाव में मछली तर ही नहीं सकती। उसी प्रकार आकाश सर्वव्यापक है पर धर्म-अधर्म के बिना उसमें जीव और अजीव (पुद्गल) चलने और ठहरने में समर्थ नहीं हो सकते ।
यहाँ यह. दृष्टव्य है कि जिस प्रकार लाठी और दीपक व्यक्ति के लिए उपकारक कारण हैं, प्रेरक नहीं, उसी प्रकार ये धर्म और अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गल की गति और स्थिति में मात्र उपकारक कारण हैं, प्रेरक नहीं। पक्षियों के गमन में आकाश को निमित्त नहीं माना जा सकता क्योंकि आकाश का कार्य तो अवकाश देना मात्र है।
ये दोनों द्रव्य अमूर्तिक, निष्क्रिय, अखण्ड, व्यापक नित्य और असंख्यात प्रदेशी हैं। अपने अनन्त अगुरुलघुगुणों से उत्पाद, व्यय करते हुए भी वे द्रव्य अनादिकालीन हैं । अलोकाकाश में तो वे साधारणतः रहते हैं पर उनके अस्तित्व का विशेष आभास आकाश में वहाँ होता है जहाँ जीव एक निश्चित सीमा के बाद गमन नहीं कर पाते। जीव और पुद्गल अपने गमन और स्थगन में स्वयं ही उपादान कारण हैं तथा धर्म और अधर्म द्रव्य उसमें सहकारी कारण बन जाते हैं।
कारण तीन प्रकार के होते हैं-१. परिणामी कारण अर्थात् जो कारण स्वयं कार्य रूप से परिणमन करे। इसे उपादान कारण भी कहते हैं। जैसे मिट्टी जो घड़े रूप कार्य में बदल जाती है। २. निमित्तकारण अर्थात् जो स्वयं कार्य रूप से परिणत तो न हों पर कर्ता को कार्य की उत्पत्ति में सहायक हों। जैसे-घड़े की उत्पत्ति में दण्ड, चक्र आदि निमित्त कारण होते है। और ३. निवर्तक कारण अर्थात् जो कार्य का कर्ता होता है। जैसे घड़े का कर्ता कुम्हार । धर्म और अधर्म द्रव्य कारणों में से निमित्तकारण अथवा सहकारी कारण के रूप में प्रतिष्ठित हैं । आधुनिक विज्ञान की शब्दावली में इसे Ether कह सकते है।
१. पम्पास्तिकाय, ८३-८४.; उत्तराध्ययन, ८.९,२८.९ २० कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गापा २१२, षड्दर्शनसमुच्चय, का. ४९ की टीका. तत्वासार, ३.२३