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कषाय और लेश्या :
कर्माश्रव का मूल कारण मोहनीय कर्म है जिसके अन्तर्गत क्रोधादि चार कषायें आती हैं । क्रोष मिटता नहीं, मान मुड़ता नहीं, माया में वक्रता होती है और लोभ का स्वभाव चिपकना है । इनके स्वभाव की तरतमता और स्थायित्व के आधार पर आचार्यों ने अनन्तानुबन्धी, प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण और संज्वलन क्रोधादि कषायों के लिए कुछ उपमायें दी हैं
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१. क्रोध -- क्रमशः पाषाण, पंक, धूलि और जल रेखा के समान ।
२. मान -- क्रमशः पाषाण, अस्थि, लकड़ी और बेंत के समान ।
२. माया -- क्रमशः बाँस की जड़, भैंस के सींग, गोमूत्र की धारा और बाँस के छिलके समान ।
४. लोभ--मंजीठिया रंग, औंगन, कीचड़ और हलदी के लेप के समान ।
इन कषायों में अनन्तानुबन्धी कषाय संसार में परिभ्रमण का कारण बनती है । शेष कषायें क्रमशः हीन होती है । कषायों के समान ही मानसिक वृत्तियों का भी वर्गीकरण किया गया है । जिन्हें 'लेश्या' की संज्ञा दी गई है । शुभाशुभ परिणामों का प्रतीक भी कह सकते हैं । इनसे आत्मा कर्मों से लिप्त हो जाता है । मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये लेश्या हैं । इनकी छः श्रेणियाँ रंग के आधार पर की गई हैं, जो क्रमशः उत्तरोत्तर होन और विशुद्ध होती गई हैं
१. कृष्ण लेश्या -- तीव्रकषायी, दुराग्रही, हिंसक, कलहप्रिय आदि । २. नील लेश्या - विषयासक्त, मन्द, आलसी; परवंचन में दक्ष आदि । ३. कापोत लेश्या -- मात्सर्य, पशून्य, परनिन्दा, युद्ध आदि करने वाला ४. पीत लेश्या -- दृढ़ता, मित्रता, दयालुता, सत्यवादिता, दानशीलता आदि । ५. पद्म लेश्या - सत्यवाक्, क्षमा, सात्विकदान, पाण्डित्य आदि । ६. शुक्ल लेश्या - निर्वैर, वीतरागता, गुण दृष्टि आदि ।
कषायानुविद्ध योग प्रवृत्ति रूप लेश्या में कषाय का उदय छह प्रकार से होता है - तीव्रतम, तीव्रतर तीव्र, मन्द मन्दतर और मन्दतम । कृष्ण, नील और कापोत लेश्या वाले जीव एकेन्द्रियसे लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं । पीतलेश्या और पद्मलेश्या वाले जीव संज्ञी मिथ्या दृष्टि से लेकर सयोगि केवली गुणस्थान तक होते हैं । तेरहवें गुणस्थान के आगे के सभी जीव लेश्या रहित हैं ।
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