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कालद्रव्य :
काल द्रव्य पदार्थ के वर्तना, परिणाम, क्रिया और परत्वापरत्व व्यवहार में उपकारक है । पदार्थ में प्रतिक्षण उत्पाद व्यय - ध्रौव्य रूपात्मक परिणमन का जो अनुभव होता है बही वर्तना है । शिशु अवस्था से वृद्धावस्था तक पहुँचने में जो परिवर्तनादि होते हैं उन्हें वर्तना कहा जाता है । यह वर्तना प्रतिक्षण प्रत्येक पदार्थ में होती रहती है । इसे अनस्तिकायिक द्रव्य कहा गया है ।
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पदार्थ में जो स्वाभाविक या प्रायोगिक परिवर्तन होता है उसे परिणाम कहते हैं । इसमें पदार्थ का मूल रूप स्थिर रहता है । बाह्य और आभ्यन्तर निमित्तों से द्रव्य में होनेवाला परिस्पन्दात्मक परिणमन क्रिया है । वह दो प्रकार की है-बैलगाड़ी आदि में प्रायोगिक तथा मेघ आदि में स्वाभाविक क्रिया होती है । परत्व और अपरत्व का सम्बन्ध क्षेत्र और काल से है । पदार्थ का स्थानान्तरण होना क्रिया है । इनमें वर्तना तत्त्व निश्चयकाल को व्यक्त करता है और शेष उपकारक तत्व भूत, वर्तमान और भविष्य रूप व्यवहारकाल से सम्बद्ध हैं । प्रत्येक लोकाकाश के प्रदेश पर एक कालाणुद्रव्य अवस्थित है । उनका कोई पारस्परिक सम्बन्ध नहीं ।
काल भी अमूर्तिक है और निष्क्रिय है । घड़ी, घण्टा, पल, दिन, रात आदि के रूप में उसका अस्तित्व प्रमाणित होता है । वे भूत, वर्तमान, और भविष्य काल के ही प्रतिरूप हैं । द्रव्यों के परत्व और अपरत्व (प्राचीनता और नवीनता) जानने का माध्यम भी काल है । अतः के लिए नहीं है । वह तो एक स्वाभाविक सिद्ध पदार्थ है रहता है ।
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काल मात्र व्यवहार
वह सदा बदलता
जैनदर्शन में दो परम्परायें हैं- कुछ आचार्य काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर उसे जीव- अजीव की पर्याय मानते हैं तथा उपचार में उसे द्रव्य कहते हैं । उमास्वामी भी काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानते हुए नहीं दिखाई देते, पर भगवतीसूत्र, ' पञ्चास्तिकाय आदि ग्रन्थों में उसे स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में ही स्वीकार किया गया है । प्रायः इसी परम्परा को सभी जैनाचार्यों ने माना है ।
भगवतीसूत्र में काल के भेदों का वर्णन किया गया है। जिसके दो भाग न हों उस कालांश को समय कहते हैं । असंख्यंय समयों के समुदाय की आवलिका
१. उवयारा दव्ययज्जामो, (देवेन्द्रसूरि) नवतत्वप्रकरण
२. भगवती, २५.४
३. पचास्तिकाय, १.२३,२४