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''गुत्तरनिकाय में महावीर ने स्वयं को क्रियावादी कहा और दुको बांधावादो के रूप में व्यक्त किया। सूत्रकृतांग में शीलांक ने भी की बनात्मवादी होने के कारण अक्रियावादियों में ही सम्मिलित किया है परपुर नेसायं को क्रियावादी और अक्रियावादी दोनों कहा । वेकुराज करवाने के पापाती होने के कारण क्रियावादी और अकुशल कर्म को रोकने के उपदेण्डा होने के कारण अक्रियावादी हैं।
अनुत्तर निकाय में ही वण श्रावक के माध्यम से निग्नष्ठ नातमुत्त के अनुसार कर्मों का पाश्रव और उसकी निर्जरा का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है।
'इसी निकाय में पूर्ण कश्यप के नाम से छः प्रकार की अभिजातियों का भीडल्लेख मिलता है-कण्ह (कृष्ण), नील, लोहित, हलिख, सुका (खुल्ल) और परमसुक्क (परमशुक्ल)।' जैनधर्म में उनका वर्णन लेण्याजों के रूप में किया गया है । भावों की अशुद्धता और विशुद्धता के मापार पर जीवों का यहाँ वर्गीकरण हुआ है।
इन उदरणों से निगण्ठ नातपुत्त के कर्म सिद्धान्त का विस्तृत ज्ञान नहीं हो पाता । संभव है, उस समय तक कर्मों का वर्गीकरण न किया गया हो और नियोग के माध्यम से ही अपना सिद्धान्त प्रस्तुत किया जाता रहा हो। बाज जो कों का वर्गीकरण मिलता है वह उत्तरकालीन विकास का परिणाम होगा।
आध्यात्मिक क्षेत्र में कर्म का तात्पर्य है-जीवं परतन्त्री कुर्वन्ति इति कर्माणि अर्थात् जीव को जो परतन्त्र कर दे वे कर्म हैं। अथवा जीवेन मियादर्शनादिपरिणाम : क्रियन्ते इति कर्माणि अर्थात् मिथ्यादर्शनादि परिणामों से संयुक्त होकर जीव के द्वारा जिन का उपार्जन किया जाता है वे कर्म कहलाते हैं।
इन व्युत्पत्तियों से यह स्पष्ट है कि जीव मिथ्यादर्शनादि कारणों से कर्मों में बंध जाता है । बंधने और बांधने का जीव और कर्म का स्वभाव है। बात्मत और कर्म दोनों स्वतन्त पदार्थ हैं। एक चेतन है, दूसरा जड़ । चेतन और जड़ का सम्बन्ध नहीं हो सकता। परन्तु दोनों पदार्थों में एक वैभाविकी शक्ति नियमान है जो पर का निमित्त पाकर वस्तु का विभाव रूप परिणमव कर देती है।इसी से जीव अनादिकाल से कर्मों से बंधा है। पुद्गल द्रव्य के साथ एक
१.बंगुर विकाव, पतुर्ष माग (रो.), प. १८२ 2 Jainism in Buddhist Literature, पृ.७३-८४. ३. ब स, ४-२०-५
तर निकाय, पुतीय माग (रो.), १.१८१