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हैं परन्तु मोक्ष प्राप्ति के लिए उनको भी छोड़कर शुद्धोपयोगी होना अपेक्षित है । प्रथम परम्परा समाजोन्मुख थी और द्वितीय परम्परा व्यक्ति विकासोन्मुखी मी । जैन-बौद्ध परम्परा द्वितीय परम्परा की अनुगामिनी रही है ।
द्वितीय परम्परा के प्रभाव से प्रवर्तनवादी परम्परा कुछ निवर्तन की ओर झुकी और उसमें दो पक्ष हुए। प्रथम पक्ष ने प्रवर्तन पक्ष को सर्वधा है नहीं माना । इस परम्परा को न्याय-वैशेषिक दर्शनों का नेतृत्व मिला। और द्वितीय पक्ष ने प्रवर्तक परम्परा की तरह श्रीत-स्मार्त कर्म को भी हैय मानकर कर्मों की आत्यन्तिक निवृत्ति रूप मोक्ष की प्रतिष्ठा की । इसे सांख्य योग दर्शन ने प्रारम्भ किया । वेदान्त दर्शन का भी विकास इसी दर्शन की पृष्ठभूमि में हुआ ।
न्याय-वैशेषिक परमाणुवादी हैं, सांख्य-योग प्रधानवादी हैं और जैन वीजवर्णन परिणामवादी हैं । परमाणुवादी कर्म को चेतन-निष्ठ मानकर उसे चेतनधर्म मानते हैं, प्रधानवादी उसे जड़धर्म कहते हैं और परिणामवादी चेतन और जड़ के परिणाम रूप से उभयवादी हैं ।
कर्म सिद्धान्त की प्राचीनता :
परिणामवादी जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त काफी प्राचीन है । महावीर के पूर्ववर्ती ग्रन्थों में कर्मप्रवाद पूर्व का उल्लेख आता है। इस से पता चलता हैं कि कर्म ग्रन्थों की भी एक परम्परा रही होगी। जैन कर्म-परम्परा की प्राचीनता की दृष्टि से पालि- प्राकृत साहित्य का यहाँ उल्लेख किया जा सकता है।
पालि साहित्य में जैनधर्म का कर्म सिद्धान्त विस्तार से नहीं मिलता । एक हल्की-सी झांकी अवश्य दिखती है । चूल - दुक्खनखन्धसुत्त तथा देवदहसुत के आधार पर भ. महावीर के कर्मसिद्धान्त का नामतः पता चलता है । उसके मेद-प्रभेदों का ज्ञान नहीं हो पाता। जैनधर्म में त्रियोग (मन, वचन और काय ) का बहुत महत्त्व है । जाश्रव और बन्ध तथा संवर और निर्जरा का मूल कारण त्रियोग का हलन चलन तथा उसका संवरण है । बौद्धधर्म में इसे विदण्ड कहा गया है। महावीर ने कायदण्ड को पाप का सर्वाधिक कारण माना पर बुद्ध ने मनोदण्ड पर अधिक जोर दिया । बुद्धने इसकी व्याख्या अपने ढंग से की है और महावीर की आलोचना भी की है। तथ्य यह है कि महावीर ने मी मनोदण्ड को मुख्य माना है। उसके साथ यदि कायदण्ड भी हो गया तो वह पाप अपेक्षाकृत अधिक गहरा हो जाता है। कर्म के आश्रय और संबर में भाव की भूमिका काय से कहीं अधिक होती है ।
१. नशिब निकान, प्रथम भाग (से.) १. १७२