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के रूप में, बर्कले महाप्रयोजन के रूप में तथा हेगेल निरपेक्ष चैतन्य के रूप में ईश्वर को देखते हैं। विकासक्रम की दृष्टि से प्राणवाद, (arunism), जीववाद (fetishism), द्वैतवाद (Ditheism), एकेश्वरवाद (monotheism), देववाद (deism), सर्वेश्वरवाद (Pantheism), सर्वचेतनावाद आदि सिद्धान्त उल्लेखनीय हैं। धर्मनिरपेक्षता (secularism ) की दृष्टि से ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार भी किया गया है और यह कहा गया है कि कार्य-कारण नियम का ईश्वर से कोई सम्बन्ध नहीं । इस संदर्भ में एकतत्ववाद (causal monism) के स्थानपर बहुतत्ववाद (Causal pluralism) को प्रस्तुत किया गया जो जैन दर्शन से कुछ मेल खाता है ।
कर्मसिद्धान्त
स्वरूप और बिश्लेषण :
ईश्वर की परतन्त्रता से छुटकारा पाना और आत्मा की स्वतन्त्रता को ऊपर लाकर सत्कर्मों की प्रतिष्ठा करना कर्म सिद्धान्त का प्रमुख उद्देश्य रहा है । प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा की परम शक्ति को प्राप्त करने की क्षमता रहती है जो अविद्या, प्रकृति, अज्ञान, अदृष्ट, मोह, वासना, संस्कार आदि के कारण प्रच्छन्न हो जाती है । जीव अनादि काल से मिथ्याज्ञान के कारण मोहाविष्ट रहता है । कषाय और योगों से वह स्वतन्त्र नहीं हो पाता । फलतः संसार में वह संसरण करता रहता है । कर्मबन्ध और पुनर्जन्म से मुक्त होने के लिए संबर और निर्जरा करनी पड़ती है । यह कर्म सिद्धान्त सामाजिक और वैयक्तिक जीवन में पवित्रता, शान्ति, सहयोग, सौहार्द, और समता जैसे मानवीय गुणों को उद्भूत करने और उनको स्थिर बनाये रखने में पूर्ण सक्षम है । अन्यथा भौतिकवाद के चकाचौंध में जीवन अशान्त और अप्रिय बन जायेगा ।
कर्म के क्षेत्र में विशेषतः दो पक्ष दिखाई देते हैं एक प्रवर्तक पक्ष और दूसरा निवर्तक पक्ष । प्रवर्तक पक्ष जन्मान्तर और सुख-दुख का कारण कर्म को अवश्य मानता था पर वह मात्र स्वर्गवादी था। धर्म, अर्थ और काम ये तीन पुरुषार्थ उसके सिद्धान्त में थे । मोक्ष का कोई स्थान उसमें नहीं था । यज्ञादि अनुष्ठानों का फल स्वर्ग तक ही सीमित था ।
इसके विपरीत दूसरा पक्ष निवर्तकवादी था। उसके अनुसार पुनर्जन्म का कारण कर्म अवश्य है पर उसके मन में स्वर्ग से आगे परम सुख रूप मोक्ष की कल्पना है जिसे उसने चतुर्थ पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार की । इसमें पुण्य, दया आदि जैसे सत्कर्म अथवा शुभोपयोगी कर्म स्वर्ग-प्राप्ति के लिए तो ठीक