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पानामा होती है जो राग-पदि से युक्त जीव में शानावरणारित प्रलपरजाती है। भावों का निमित्त पाकर यही कार्माण-वर्गणाकर्म बना जाती है। पाप और पुद्गल रूप कर्म एक दूसरे का निमित्त पाकर परिणमन करते हैं पर वस्तुतः दोनों अपनी-अपनी पर्यायों के कर्ता हैं। समस्त पापा स्वियं अपने समाव का कर्ता है। दूसरे तो उसमें निमित्तामार है। जो बल में स्वयं बहने की शक्ति है किन्तु नाली उसके बहने में मिनिल
जीव और कर्म का यह सम्बन्ध अनादिकाल से चला जा रहा है। जीय वति स्वभावतः विशुर माना जाता है पर कर्मों के कारण उसकी विशुद्धता मिल होती जाती है। यह स्थिति तब तक बनी रहती है जबतक जीव और कर्मका सम्बन्ध पृथक् नहीं हो जाता तथा जीव मुक्त नहीं हो जाता। यति जीव के साथ यह कर्मबन्धन अनादि नहीं होता तो फिर तपस्या आदि करने की मालयकता ही नहीं होती और फिर न संसार का भी अस्तित्व होता।
अतः यह स्वतः सिद्ध है कि संसारी जीव अनादिकाल से जन्म-मरण चक्कर में भटक रहा है। राग-द्वेषादि परिणामों के कारण उसे कर्मबन्ध होता है और फलतः चतुर्गतियों के तीव्र दुःखों का भागी होना पड़ता है । जन्म-ग्रहण से शरीर मिलता है। शरीर में इन्द्रियां होती हैं। इन्द्रियों से विषय-पहन होता है । विषयग्रहण से राग-द्वेष उत्पन्न होता है और राग-वंपादिक कर्मा का सम्बन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है । भव्य जीवों की दृष्टि से यह सम्बन्ध अनादि है पर अनन्त नहीं। वह सम्यक् साधना से दूर किया जा सकता है परन्तु अभव्य जीव के लिए तो वह अनादि-अनन्त है। उससे वह सम्बन्ध कभी दूर नहीं हो सकता
जो खानु संसारत्वो जीवो तत्तो दुहोदि परिणामो। परिणामाले कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी । गदिमधिगवस्स देही देहादो इंवियाणि जायते । तेरिदु विसयबहणं तत्तो रागो वा दोसो वा ॥ जापदि जीवस्सेवं भावो संसार चेक्कवालम्मि । इदि जिणवरेहि भणिदो अणादिणिषणो सणिधणो वा ॥
जीव कर्म को प्रेरित करता है और कर्म जीव को। इन दोनों का सम्बन्ध नौका और नाविक के समान है। कोई तीसरा इन दोनों का प्रेरक नहीं है।
१. उपासकाम्ययन, २४६-९. २. पन्नास्तिकाय, १२८-१३०