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________________ १४९ प्रकाश के आवरणभूत शरीर आदि से छाया होती है । वह दो प्रकार की है-वर्षपरिणता और प्रतिविम्ब । स्वच्छ दर्पण में मुखादि का दिखना हर्णपरिणता है और अस्वच्छ दर्पण आदि में मात्र प्रतिबिम्ब पड़ना प्रतिबिम्ब छाया है। मीमांसकों की दृष्टि में दर्पण में छाया नहीं पड़ती बल्कि नेत्र की किरणें दर्पण से टकराकर वापिस लोटती हैं और अपने मुख को ही देखती हैं । सूर्यादि के उष्ण प्रकाश को आतप कहते हैं । चन्द्र, मणि, जुगुनु आदि के प्रकाश को उद्योत कहते हैं ।' युगल और मन : 1 पुद्गल और आत्मा का अनादिकालीन सम्बन्ध है । जब तक आत्मा संसार में संसरण करता है तब तक उसके साथ पुद्गल का सम्बन्ध बना रहता है । पुद्गल से ही शरीर की संरचना होती है । मन, वचन, श्वासोच्छवास आदि कार्य पुद्गल के ही हैं। शरीर के पांच भेद कहे गये हैं-औवारिक, free, आहारक, तेजस और कार्माण । औदारिक शरीर स्थूल शरीर है जो मनुष्य और तिर्यञ्चों के होता है । वैक्रियक शरीर अदृश्य रहता है जो देवों और नारकियों के होता है । लब्धि प्राप्त मनुष्य और तिर्यञ्च भी उसे प्राप्त कर सकते हैं । आहारक शरीर वह है जिसकी रचना प्रमत्तसंयत (मुनि) अपनी शंका-समाधान के लिए करते हैं। अपने इष्ट स्थान तक पहुँचकर वह पुन: वापिस आ जाता है । आहारक वर्गणा से इन तीनों प्रकार के शरीरों का निर्माण होता है तथा श्वाश्वोच्छ्वास का संयोजन होता है। तेजो वर्गणा से तेजस शरीर बनता है । जठराग्नि की शक्ति इसी शरीर की शक्ति है । भाषा वर्गणा और मनोवर्गणा से क्रमश: भाषा और मन का निर्माण होता है । कर्मवगंणा से कार्माण शरीर बनता है जो सूक्ष्म होता है । मानसिक, वाचिक और कायिक आदि सभी प्रकार की प्रवृत्तियों का मूल कारण यही शरीर है ।" जैन दर्शन के अनुसार मन स्कन्धात्मक है । उसे अणु प्रमाण नहीं माना जा सकता अन्यथा संपूर्ण इन्द्रियों से अर्थ का ग्रहण नहीं हो सकता । वह तो एक सूक्ष्म आभ्यन्तरिक इन्द्रिय है जो सभी इन्द्रियों के सभी विषयों को ग्रहण कर सकती है । सूक्ष्मता के कारण ही उसे 'अनिन्द्रिय' भी कहा गया है। उसका कोई बाधाकार भी नहीं । मनके दो भेद हैं-द्रव्यमन जो पौद्गलिक है और भावमन जो इन्द्रिय के समान लब्धि और उपयोगात्मक (ज्ञानस्वरूप ) है । पाश्चात्य विचारकों में देकार्त ने मन और शरोर को भिन्न-भिन्न माना है । स्पिनोजा ने उन दोनों के बीच अद्वैतवाद की स्थापना की है। इन द्वैतवाद या १. तनानार्तिक, पु. २४ २. गोमटुसार जीवकाण्ड, बाबा, १०६-८.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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