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पाता है और विशुर अवस्था की ओर बढ़ता जाता है । उसके कर्मों का बाशिकक्षय और बांशिक उपशम होता है। इसी को क्षायोपशमिक कहा गया है। इसके बाद जीव की मूल विशुद्ध अवस्था प्रगट हो जाती है जिसे क्षायिकमाव कहा गया है । इसमें उसे केवलज्ञान की प्राप्ति होती है ।
__इस प्रकार जीव और कर्म की अवस्था को स्पष्ट रूप से समझने के लिए भावों का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि ये भाव मोक्ष की ओर जानेवाले संसारी जीवों की अवस्थाओं के सूचक हैं। इसे इस प्रकार भी कहा जाता है कि जीव की तीन अवस्थायें होती हैबहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बहिरात्मा में जीव शरीर को ही मात्मा समझता है और उसके नष्ट होने पर अपने को नष्ट मानता है। पंचेन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहकर वह संसार भ्रमण करता रहता है। अन्तरात्मावस्था में जीव आत्मा और देह को पृथक्-पृथक् मानने लगता है और निरासक्त होकर भवबन्धन को काटने में संनद हो जाता है । परमात्मावस्था जीप की चरम विशुद्धास्था है जिसमें उसके विकार भाव नष्ट हो जाते हैं और अनन्तचतुष्टय की प्राप्ति हो जाती है।'
नेतर वर्शनों में मात्मा : i) भारतीय दर्शन :
चार्वाक् दर्शन पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पांच महाभूतों से आत्मा की उत्पत्ति बताता है और उनके विनाश से मात्मा का विनाश कहता है । पर यह नितान्त भूल है । क्योंकि भूत आचेतन है और मात्मा का गुण चेतन है । अचेतन तत्त्व चेतन तत्त्व की उत्पत्ति करने में समर्थ नहीं हो सकता । यदि पंचभूतों में चेतन तत्त्व को उतान करने का सामर्थे मान भी लिया जाय तो मृतक शरीर में भी पांचों भूत रहते हैं पर उसमें मात्मा नहीं रहता । अतः आत्मा पंच भूतों से उत्पन्न नहीं होता । वह तो एक स्वतन्त्र द्रव्य है जो प्रत्येक व्यक्ति में पृथक-पृथक रहता है। प्रत्यक्ष प्रमाण से भी यह अनुभवगम्य है।
वेदान्ती आत्मा को एक मानते हैं, वैशेषिक उसे सर्वव्यापी और अन्य दार्शनिक उसे अणु बराबर मानते हैं, नित्य मानते हैं और क्षणिक मानते हैं। पर मात्मा न सर्वथा नित्य है, न क्षणिक है, न एक है और न सर्वव्यापी है। वह तो
१. तत्वार्य राजवातिक, २.१; पञ्चास्तिकाय, ५६. २. समाषिक्षतक, १८. ३. मोरयपाहुन, ५.९ परमात्मप्रकाश, १-१३-१४
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