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लिए जो भाव है वे औपशमिक हैं । इसके दो भद्र है-औपमिक सम्यक्त्व मौर बीपशमिक चारित्र । मिथ्यात्व, सम्पमिथ्यात्व, और सम्यक्त्व, इन तीन दर्शनमोह तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया लोग ये चार चरितमोह, इस प्रकार सात कर्म प्रकृतियों के अशम से औपशमिक सम्मकदर्शन होता है । इसके बाद ही औपशमिक चारित्र होता है । यह सम्यक्-दर्शन चारों गतियों में होता है।
४. भायोपशमिक भाव-जैसे कोदों को धोने से कुछ कोदों की मद-शक्ति क्षीण हो जाती है और कुछ की क्षीण नही होती। उसी प्रकार परिणामों की निर्मलता से कर्मों के एक देश का क्षय और एकदेश का उपशम होना क्षायोपशमिक भाव है । इसके अठारह भेद है
i) चार ज्ञान-मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्याय ii) तीन अज्ञान--कुमति, कुश्रुत और कुअवधि iii) तीन दर्शन--चक्षु, अचक्षु और अवधि iv) पांच लब्धियां-दान, लाभ, भोग. उपभोग और वीर्य v) सम्यक्त्व-थम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और मास्तिक्य इन पांच
लक्षणों से सम्यक्त्व की पहिचान होती है । (योगशास्त्र, २.१५) vi) चारित्र-अहिंसा की साधना, और vii) संयमासंयम
५. क्षायिक भाव-जिस प्रकार निर्मली के डालने से ऊपर माये स्वच्छ बल को यदि वर्तन में अलग रख दिया जाय तो वह अत्यन्त निर्मल दिखाई देता है उसी प्रकार कर्मों की आत्यन्तिक निवृत्ति से जो आत्यन्तिक विशुद्धि होती है वह भय है और कर्मक्षय के लिए जो भाव होते हैं वे क्षायिक भाव कहलाते हैं। इसके नव भंद है केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकदान, भाविकलाम, । साविकमोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व, और क्षायिक चारित्र।
जीव के पांचों भाव यह व्यक्त करते हैं कि जीव के अनादि अनन्त शुरु पैतन्यभाव है जिसे पारिणामिक भाव कहा जाता है। कर्ममल के कारण जीव का वह स्वभाव धूमिल हो जाता है और वह संसार की ओर झुक जाता है। इसी को बादपिक भाव कहते हैं। संसार में रमण करने पर भी उसका विवेक बाजाप्रत होता है तब वह अपने पुरुषार्थ से कषायादि को वश में कर लेता हैबीरविज्ञान पा लेता है। इस अवस्था को यहाँ जोपशमिक कहा गया है। इस स्थिति तक बाते-गात जीव अपने विकार भावों को नष्ट करता