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कमवित् नित्य है और कथञ्चित् अनित्य । सभी का आत्मा पृथक्-पृथक् है और शरीर के अनुसार वह संकुचन - विसर्पणशील है । यदि हम उसे सर्वथा नित्यादि रूप मानने लगें तो सारे लोक व्यवहार समाप्त हो जायेंगे । वह तो वस्तुत: स्वभावतः सिद्ध, बुद्ध, शुद्ध और अनन्तज्ञानादि गुणों से समृद्ध है किन्तु अनादिकाल से कर्म परम्परा से आबद्ध होने के कारण जन्म-जन्मान्तरण कर रहा है । कर्म-परम्परा समाप्त होतं ही आत्मा अपने मूल विशुद्धादि स्वभाव को प्राप्त कर लेता है ।
बौद्ध दर्शन का अनात्मवाद अथवा निरात्मवाद अनेक विकासात्मक सोपानों को पार कर स्थिर हो पाया है । फिर भी समीक्षात्मक दृष्टि से कहा जा सकता है कि वहाँ आत्मा के स्थान की पूर्ति चित्त, नाम, संस्कार अथवा विज्ञान ने की और उपस्थित प्रश्नों का उत्तर सन्तानवाद ने दिया । उससे कर्मों का संबन्ध जोड़कर पुनर्जन्म की भी व्यवस्था कर दी गई है ।"
दर्शन में विज्ञानवादी बौद्ध आत्मा और ज्ञान का अभेद मानते हैं तथा ज्ञानमात्र को स्वप्रत्यक्ष कहते हैं । सांख्य, योग, वेदान्त आदि दर्शन भी इसी मत के हैं । परन्तु कुमारिल ज्ञान को परोक्ष मानते हैं और आत्मा को स्वप्रकाशक । कुछ दर्शन ऐसे हैं जो ज्ञान को आत्मा से भिन्न मानते हैं । उनमें कुछ ऐसे हैं जो ज्ञान को आत्मा का गुण मानते हुए भी स्वप्रकाशक मानते हैं, जैसे प्रभाकर । और कुछ ऐसे हैं जो उसे परप्रकाश का मानते हैं जैसे 'नैयायिक । ये दर्शन आत्मा को स्वप्रत्यक्षगम्य मानते हैं पर न्याय-वैशेषिक उसे पर प्रत्यक्षगम्य कहते हैं । जैनदर्शन आत्मा और ज्ञान को कथञ्चित् मिन्न बीर कथञ्चित् अभिन्न मानता है और साथ ही उसे स्वपरावभासी भी कहता है।
ii) पाश्चात्य दर्शन :
चार्वाक को छोडकर सभी भारतीय दर्शन आत्मा के अस्तित्व को किसी न किसी रूप में स्वीकार करते ही हैं । पाश्चात्य दार्शिनिकों ने भी उसके अस्तित्व को प्रायः स्वीकार किया है। प्लेटो ने तो यह भी कहा है कि बात्मा में ज्ञान संस्कार रूप से रहता है। आत्मा को शुद्ध स्वरूप श्रेय का ज्ञान है । बड़ी परम पद की प्राप्ति में कारण होता है । आधुनिक पाश्चात्य दर्शन का जन्मदाता और द्वितत्त्ववाद का प्रवर्तक देकार्त भी प्लेटो और अरस्तु का अनुकरण करता है । उसके अनुसार आत्मा सरल, एकत्वपूर्ण, विस्तारहीन या अप्रसारित, माकाशरहित, अविभाज्य, अभौतिक, सक्रिय, चेतन, अद्वतीय,
१. देखिये, लेखक का ग्रन्थ बौद्ध संस्कृति का इतिहास, परिवर्त ४.८८ श्लोकवार्तिक, बात्मवाद, १४२.