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सामान्य स्वभाव हैं तथा चेतन, अचेतन, मूर्त, अमूर्त, एक प्रदेश, अनेक प्रदेश, विभाव, शुद्ध, अशुद्ध और उपचरित ये दस विशेष स्वभाव है। इसी तरह जीव की शक्तियों के जो भी उल्लेख मिलते हैं उनसे उस की विशेषताओं का पता चलता है। ऐसी शक्तियों की संख्या ४७ है- १. जीवत्व शक्ति, २. चितिशक्ति, ३. दृशिशक्ति, ४. शान, ५. सुख, ६. वीर्य, ७. प्रभुत्व, ९. सर्व. दशिव, १०. सर्वज्ञत्व, ११. स्वच्छत्व, १२. प्रकाश, १३. असंकुचितविकाशत्व, १४. अकार्यकारणत्व, १५. परिणम्य पारिणामकत्व, १६. त्यागोपादानशून्यत्व, १७. मगुरुलघुत्व, १८. उत्पाद-व्यय ध्रौव्यत्व, १९. परिणाम, २०. अमूर्तत्व, २१. अकर्तृत्व, २२. अभोक्तृत्व, २३. निष्क्रियत्व, २४. नियतप्रदेशत्व, २५. सर्वधर्मव्यापकत्व, २६. साधारण, असाधारण, साधारणासाधारण-धर्मत्व, २७.. अनन्तधर्मत्व, २८. विरुद्धधर्मत्व, २९. तत्त्व, ३०. अतत्त्व, ३१. एकत्त्व, ३२. अनेकत्त्व, ३३. भाव, ३४. अभाव, ३५. भावाभाव, ३६. अभावभाव, ३७. भावभाव, ३८. अभावभाव, ३९. भाव, ४०. क्रिया, ४१. कर्म, ४२. कर्तृ, ४३. करण, ४४. सम्प्रदान, ४५, अपादान, ४६. अधिकरण, और ४७. सम्बन्धशक्ति ।
जीव असंख्यात प्रदेशी भी है। संकोच विस्तार के होने पर भी वह लोकाकाश तुल्य असंख्य प्रदेशों को नहीं छोड़ता क्योंकि कार्माण शरीर के साथ उसका एकत्व होता है। जैसे ही समस्त योग (मन-वचन-कायिक क्रियायें). नष्ट हो जाते हैं, प्रदेशों का यह संकोच-विस्तार अवस्थित हो जाता है । अयोग केवली और सिद्धों के सभी प्रदेश इसलिए अवस्थित होते हैं । वे वहां से चलतेफिरते नहीं।'
इस प्रकार जीव अथवा आत्मा एक नित्य तथा विशुद्ध रूप को लिए हुए रहता है परन्तु मिथ्यात्त्व और अज्ञानता के कारण उसका यह स्वरूप पून धूसरित हो जाता है। योग-निरोष से उस विशुद्ध मूल रूप को पुनः प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा मौरज्ञान:
शान, दर्शन, चारित्र, सुख, दुःख, वीर्य, शक्ति, भव्यत्व (मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता), अभव्यत्व, सत्व, प्रमेयत्व, द्रव्यत्व, प्राणधारित्व, क्रोधादिपरिणतत्व, संसारित्व, सिद्धत्व, परवस्तु व्यावृत्तत्व आदि रूपसे जीव की अनेक पर्यायें होती हैं। ये पर्यायें कुछ स्वनिमित्तक होती हैं और कुछ
१. समयसार, आत्मख्याति २. पवला, १.१.१,३३,