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परनिमित्तक । इन्हीं पर्यायों को ज्ञानादि धर्म कहते हैं। ये ज्ञानादिधर्म पर्याय जीव से न तो अन्यन्त भिन्न ही हैं और न सर्वथा अभिन्न ही, बल्कि कथाञ्चित् भिन्नअभिन्न रूप हैं ।" जीव धर्मी है और ज्ञान धर्म है। जीव गुणी है और ज्ञान गुण है । गुणी शक्तिमान् है और गुण शक्ति है । गुणी कारण है और बुध कार्य है । यदि यह भेद न हो तो "जो जानता है वह ज्ञान है" ऐसा भेद कैसे हो सकता है ?" अतः परिणाम, स्वभाव, संज्ञा, संख्या, और प्रयोजन आदि की दृष्टि से द्रव्य और गुण कथञ्चित् भिन्न हैं और कथंचित् अभिन्न हैं ।
नैयायिक और सांस्य आत्मा और ज्ञान को सर्वथा पृथक् तस्व मानते हैं । फिर भी उनमें गुण-गुणी भाव स्वीकार करते हैं । परन्तु सर्वथा भिन्न पदार्थो में गुणगुणी भाव बन नहीं सकता । गुण गुणी को छोड़कर अन्यत्र नहीं रह सकता । यदि दोनों को सर्वथा भिन्न माना जाय तो जल का स्वभाव शीतत्व और अग्नि का स्वभाव उष्णत्व नहीं माना जायगा और गुण-गुणी भाव नष्ट हो जायगा । आत्मा की सिद्धि में यह भी एक विशेष तत्त्व है जो आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्त्व को सिद्ध कर देता है ।
यहाँ एक तथ्य और समझ लेना चाहिए । यद्यपि आत्मा स्वभाव से अमूर्त है परन्तु यह संसारी जीव अनादिकाल से अष्ट कर्मों से बंधा हुआ है और उसमें कार्माण शरीर लगा हुआ है । इस कार्माण शरीर के साथ सदैव
रहने के कारण अमूर्त आत्मा भी मूर्त हो जाता है । अत: जैन दर्शन में आत्मा को कर्मबन्ध के कारण सशरीर तथा मूर्त भी मानते हैं ।
जीव के पांच स्वतत्व (भाव) :
जीव के दो भेद हैं- द्रव्य जीव और भाव जीव । द्रव्य जीव नित्य है, पर कूटस्थ नित्य नहीं, परिणामी नित्य है, जैसा हम अभी पीछे देख चुके है। और भाब जीव उसकी गुण-पर्यायें हैं । जीव में भिन्न-भिन्न प्रकार के सुख-दु:ख, हिंसा-अहिंसा, मय-अभय आदि रूप से भाव आते हैं । इन भावों का कारण होता है कर्म । जीव की कर्म से बद्ध अवस्था को ही भाव अवस्था कहते हैं ।
इस भाव अवस्था को ही पांच भागों में विभाजित किया गया है-मदयिक, पारिणामिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक । पारिणामिक भाव को छोड़कर जीव के साथ शेष भावों का संयोग सम्बन्ध होता है ।
१. औवधिक - कर्म जब परिपाक अवस्था में आते हैं और फल देने की
१. षड्दर्शनसमुच्चय, का. ४९ की वृत्ति.
२. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा, १८०., आप्तमीमांसा, ७१-७२.
३. मावदिचतोत्थ उच्यते, परमात्म प्रकाश, १.१२१