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है। उसमें 'अनकान्तिक दोष भी नहीं आता क्योंकि मैं दुःखी हूँ। इस प्रकार का अन्तरंग ज्ञान आत्मा के ही आधार से होता है। तथा "मैं गोराकाखा हूँ" इत्यादि रूप से जो बहिर्मुख ज्ञान होता है वह इसी आत्मा का उपकार होने से शरीर के विषय में प्रयुक्त होता है।
अहं प्रत्यय का कादाचित्कत्व (अनित्यत्व) सिद्ध होता है । आत्मा का लक्षण उपयोग है जो साकार या अनाकार होता है। जिस प्रकार सहकारी सामग्री के होने पर बीज में उत्पादन की क्षमता होती है और उसके न होने पर नहीं होती उसी तरह आत्मा के सदा विद्यमान रहने पर भी कर्मों के क्षय और उपशम की विचित्रता से इन्द्रिय-मन आदि का सहकार मिलने पर ही 'अहं' प्रत्यय होता है । उसे कादाचित्क (अनित्य) कहा गया है।
मात्मा को सिद्ध करने वाले व्यभिचारी हेतु का भी अभाव नहीं । रूपादि जानने की क्रिया का जो कर्ता है वही आत्मा है। चक्षु आदि इन्द्रियाँ कर्ता नहीं हो सकती क्योंकि वे स्वयं कारण और परतन्त्र हैं। तथा इन्द्रियों स्वयं पोद्गलिक और अचेतन हैं। दूसरे की प्रेरणा से कार्य करने के कारण इन्द्रियो करण हैं। इन्द्रियों यदि जानने की क्रिया की कर्ता होती तो उनके नष्ट होने पर पदार्थों का स्मरण नहीं होता। रूप-रस का एक साथ अनुभव करनेवाला आत्मा ही है।
आत्मा की अस्तित्त्व सिद्धि में इनके अतिरिक्त और भी अनेक प्रमाण हैं। हर क्रिया प्रयत्न पूर्वक होती है। शरीर को नियत दशा में ले जाने वाली चेष्टा आत्मा के प्रयत्न से ही होती है। वही कर्ता है। श्वासोच्छवास रूप वायु से शरीर रूपी धोंकनी को फेंकने वाला शरीर का अधिष्ठाता आत्मा है। शरीर रूपी यन्त्र का कर्ता आत्मा है । शरीर की वृद्धि, हानि, पाव का भरना आदि भी आत्मा के स्वीकार करने पर ही संभव होगा । मन का प्रेरक आत्मो है। पर्यायों का आश्रय आत्मा है। शुद्ध पर्यायों द्वारा आत्मा वाच्य भी है। सुखादि गुणों का आश्रय और उत्पादन का आधार भी बात्मा ही है। संषय तथा सानादि गुणों का अधिष्ठाता भी आत्मा ही है। अतः आत्मा के अस्तित्व पर किसी भी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता।' मात्मा की शक्ति :
आत्मा या जीव के स्वभावों और शक्तियों का भी वर्णन साहित्य में मिलता है। अस्ति, नास्ति, नित्य, अनित्य, एक, अनेक, भव्य, अभव्य और परम ये ग्यारह १. विशेषावक्सकभाष्य, १५४९-१५६०; तत्वार्य राजवतिक, २.८.२०,
स्वाताव मंजरी, १७. (वृत्तिसहित) बादि अन्य देखिये।