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तवा मन से युक्त जीव [वस कहलाते हैं । पंचेन्द्रिय जीवों में कोई संशी (समनस्क) रहते हैं और कोई असंशी (अमनस्क) । पंचेन्द्रियों के अतिरिक्त शंष सभी जीव असंशी होते हैं । स्थावर जीव पांच प्रकार के होते हैं-पषिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति । पृथ्वीकायिक जीव भी कुछ वादर (स्थूल) होते है बोर कुछ सूक्म । इस प्रकार एकेन्द्रिय दो, विकलनय (दीन्द्रिय, बीनिय और चतुरिन्द्रिय) तीन, और पंचेन्द्रिय दो, कुल सात भेद हुए। ये सातों प्रकार के जीव पर्याप्तक, और अपर्याप्तक होते हैं । अतः जीवों के कुल चौदह भेर हए । इन्हें ही जीवसमास कहते हैं । समूची' जीवराशि इन्हीं भेदों के अन्तर्गत संबोषित कर दी गई है।
संसारी जीव अष्ट कर्मों से विमुक्त होकर सिद्ध हो जाता है । अष्ट कर्मों के विनाश से उसे अष्ट गुणों की उपलब्धि होती है । ज्ञानावरण के नाश से केवलज्ञान, दर्शनावरण के नाश से केवलदर्शन, वेदनीय के नाश से अव्यावापसुन, मोहनीय के नाश से सम्यक्त्व गुण, आयु के नाश से अवगाहना, नाम के नाश से सूक्मत्व, गोत्र के नाश से अगुरुलघुत्व और अन्तरायकर्म के नाश से अनन्तवीर्य गुण प्रगट होते हैं । ये सिद्धजीव जन्ममरणादि प्रक्रिया से दूर और उत्पाद-म्पय रूप होते हुए भी मुक्तत्व रूप से ध्रौव्य स्वभावी हैं।
सिद्ध हो जाने पर यह जीव प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, और प्रदेश इन चार प्रकार के बंधों से विमुक्त होकर ऊर्ध्वगमन करता है । जिस प्रकार ऊपर के छिलके के हटते ही एरण्डबीज छिटककर ऊपर जाता है तथा जैसे मिट्टी का लेप घुलते ही तूंबड़ी पानी के ऊपर आ जाती है उसी प्रकार कर्मा के कारण संसार में भटकने वाला आत्मा कर्मबन्धन के मुक्त होते ही ऊर्ध्वगति स्वभाव वाला होता है । यह सिद्ध आत्मा लोक के अन्तभाग में स्थित रहता है क्योंकि उसके आगे धर्मास्तिकाय द्रव्य का अभाव होता है । मात्मा का अस्तित्व:
इस शास्त्रीय विवेचन से आत्मा, कर्म और संस्कार का अस्तित्व सिख हो जाता है। इसके बावजूद आत्मा के अस्तित्व पर विशेष प्रश्नचिन्ह बड़ा किया जाता है । वस्तुत: उसका अस्तित्व प्रत्यक्ष से भले ही सिद्ध न हो पर बनुमानादि प्रमाणों से उसके स्वरूप को असिद्ध नहीं किया जा सकता। 'महं प्रत्यय' से मानस प्रत्यक्ष द्वारा आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया जा सकता १. वस्वार्य सूत्र, २.१०-१४.; पञ्चास्तिकाय, ११९-१२०. माहार, शरीर, शानिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन के व्यापारों अर्थात् प्रवृत्तियों में परिणमन करने की जिन जीवों में शक्ति होती है वे पर्याप्तक कहलाते है और जिनमें यह शक्ति नहीं होती ये अपर्याप्तक कहलाते हैं।