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जिसके गुण जहाँ उपलब्ध होंगे वह वस्तु वहीं रहेगी । आत्मा का अस्तित्व नहीं होगा जहां उसके मान, स्मृति आदि गुण, विद्यमान रहेंगे । ये सारे गुण नहीं मिलते हैं जहाँ शरीर रहता है । अदृष्ट की सर्वव्यापकता के समान बात्मा की सर्वव्यापकता नहीं मानी जा सकती । अन्यथा हर कार्य में अदृष्ट की कल्पना करनी पड़ेगी । फिर ईश्वर की भी क्या आवश्यकता रहेगी?
आत्मा व्यवहारनय से साता-असाता आदि पुद्गल कर्मजन्य सुख-दुःख का मोक्ता है पर निश्चयनय से वह अपने ही ज्ञानानन्द स्वभाव का भोग करने पाला है। सांस्य के पुरुष में साक्षात् भोक्तृत्व नहीं बल्कि वह बुद्धि के भोग को अपना मानकर चलता है। परन्तु जैन दार्शनिक भोग का सम्बन्ध मात्मा से जोड़ते हैं। मात्मा रूप माश्रय के बिना भोग-क्रिया नहीं हो सकती।
मात्मा जबतक कर्मों से सम्बद्ध रहता है तबतक वह संसार में जन्म-मरण की क्रियाजों में ही भटकता रहता हैं । कर्मों के समूल नष्ट होने पर आत्मा मोज पहुँच जाता है। चार्वाक दर्शन में कर्म का अस्तित्व ही नहीं। परन्तु सुखदु:ख के वैषम्य का कोई न कोई कारण तो मानना ही पड़ेगा । यह कारण न ईश्वर हो सकता है और न पंचभूत हो सकते हैं । यह कारण हमारे पूर्वकृत कर्म हैं। उनका इन्द्रियों से प्रत्यक्ष भले ही न हो पर अतीत-अनागत वस्तु के समान उसका अनुभव अवश्य होता है। यदि मात्र इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय होने से ही उसकी सत्ता को नकार दिया जाये तो परमाणु की सत्ता रूप घटादि कार्यों को कैसे स्वीकार किया जा सकेगा? पर घटादि कार्य प्रत्यक्ष दिखाई देते ही हैं । अतः कर्मों की सत्ता अविश्वसनीय नहीं।
जैन दर्शन में कर्म को 'कार्माण शरीर' कहा गया है और उसे पौद्गलिक माना गया है । मूर्त सुख-दुःखादि का बेदन या अनुभव करानेवाला कोई मूर्तिक पदार्थ ही होना चाहिए । यह मूर्तिक पदार्थ हमारा कर्म ही है । उसके संयोग से हमारी कार्मिक वृद्धि होती है, उनका परिवर्तन (परिणामत्व) उनके कार्य रूप शरीरादि के परिवर्तन से स्पष्टतः प्रतीत होता है । मूर्त कर्म का अमूर्त आत्मा के साथ यह संयोग अनादिकालीन है । कर्म से भाबड आत्मा को भी कञ्चित् मूर्त कहा गया है । मात्मा और कर्म का यह अनादि संयोग समाप्त होते ही मात्मा का परम विशुद्ध स्वरूप प्रगट हो जाता है । इसी को मोक्ष कहते हैं। यहां से फिर उसका संसार में मावागमन नहीं होता। इसी को सिद्धावस्था भी कहा जाता है। ___ जीव दो प्रकार के होते हैं-संसारी और मुक्त । संसारी जीव के भी वो भेद है- अस बोर स्थावर । रसना, घाण, पक्ष मोर मोत्र । इन पार शनियों