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है। यह मूर्तत्व गुण चेतना का विकार है और विकार स्थायी रहता नहीं, अतः वह अशुद्ध है। माला और कर्म :
मात्मा शुद्ध नय से अनन्तचतुष्टय रूप शुद्ध भावों का कर्ता है पर व्यवहारतः वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र पौर अन्तराय रूप अष्ट द्रव्यकर्मों, आहारादि छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल रूपमोको तथा बाहय घट-पटादि द्रों का कर्ता है । सांख्य दर्शन पुरुष (आत्मा)को फर्ता नहीं मानता बल्कि उसे साक्षी मात्र मानता है । उसके अनुसार भात्मा या पुरुष चैतन्य स्वरूप होते हुए भी एकान्त रूप से कूटस्थ नित्य और शाश्वत है। बन्ध-मुक्त रूप परिणाम प्रकृति में ही होते हैं । परन्तु जैन दर्शन परिणामवादको स्वीकार करता है । कर्मों के कारण आत्मा स्वरूप को छोड़कर सुख-दुःखादिको ही अपना समझने लगता है। यह परिवर्तन आत्मा के परिणामवाद को व्यक्त करता है। यदि आत्मा अपरिणामी होगा तो उसमें ये परिवर्तन कैसे संभव होंगे? प्रकृति को बद्ध और मुक्त करने वाला कोई अन्य तत्त्व अवश्य होना चाहिए जबकि सांख्य प्रकृति के अतिरिक्त अन्य किसी तत्त्व को मानता ही नहीं । प्रकृति को स्वयं बढ-मुक्त माना नहीं जा सकता अन्यथा बन्धन और मुक्ति में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा । प्रकृति के परिवर्तन में पुरुष को कारण माना जाय तो फिर पुरुष को अपरिवर्तनशील नहीं कहा जा सकता क्योंकि स्वयं में परिवर्तन किये बिना दूसरे में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। अतः आत्मा को कर्ता कहा गया है ।
आत्मा अपने देह के परिमाण रूप रहता है । उसमे संकोच और विस्तार होने का स्वभाव रहता है । फलतः चीटी की आत्मा चीटी बराबर और हाथी की आत्मा हाथी बराबर होगी। यदि आत्मा स्वदेहपरिमाणवान् न होकर अंगुष्ठदि मात्र हो तो कष्ट की अनुभूति अंगुष्ठादि अंग को ही होनी चाहिए, अन्य अंगों को नहीं, परन्तु ऐसा होता नहीं । अतः आत्मा स्वदेहपरिमाणवान् है । नयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक आदि दार्शनिक आत्मा की सर्वे. व्यापकता को स्वीकारते हैं । पर शरीर के बाहर आत्मा कैसे रह सकती है ?
१. द्रव्य संग्रह टीका, गापा २.; पञ्चास्तिकाय, ३७, ताप्तर्यवृत्ति. २. सांस्यकारिका, १९ ३. प्रवेश संहार विसम्यिां प्रदीपवत, तत्वार्थसूत्र, ५.१६; पञ्चास्तिकाय संग्रह, गाथा "
में कहा गया है कि जिस प्रकार दूध मे पड़ा पद्मरागमणि अपने रंग से दूषको प्रकाशित करता है उसी प्रकार देह में रहनेवाला जीव भी अपने रूप से देह में व्याप्त