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पाश्चात्य दर्शनों में व्य का स्वरूप :
पाश्चात्य दर्शन शास्त्र में भी द्रव्य के स्वरूप पर चर्चा हुई है । ग्रीक दार्शनिक हेराक्लिटस पदार्थ को परिवर्तनशील ही मानता है । विलियमजेम्स
और बर्गस भी लगभग यही विचार व्यक्त करते हैं । पाश्चात्य दर्शनों में बस्त स्वातत्र्यवाद के अनेक भेद-प्रभेदों की व्याख्या की गई है। उनमें भी भेदवाद और अभदवाद को आधार बनाया गया है । लाइबनित्से ने द्रव्य को गति, चेष्टा, क्रिया और शक्ति का केन्द्रबिन्दु माना है । देकार्ते के अनुसार द्रव्य वह है जो अपनी स्थिति के लिए अन्य पदार्थ की अपेक्षा न रखता हो । देकात द्वितत्त्ववादी है, स्पिनोजा एकत्ववादी है, लाइबनित्से बहुत्ववादी है, लॉक और वर्कले तथा हघूम अनुभववाद का आश्रय लेकर अपना मत स्थापित करता है। कान्ट उसके परिवर्तन को पूर्वानुभव योग्यता अथवा क्षमता द्वारा बोध्य मानता है । हेमेल इन सभी मतों के समन्वय में विश्वास करता है।
द्रव्यमेव:
द्रव्य अथवा तत्त्व के मूलतः दो भेद है-जीव और अजीव । जीव द्रव्य अरूपी है । अजीव द्रव्य रूपी और अरूपी दोनों प्रकार के होते है रूपी द्रव्य को 'पुद्गल' कहते हैं। अरूपी द्रव्य चार प्रकार का है-धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इन छः द्रव्यों में काल अनस्तिकायिक है और शेष द्रव्य अस्तिकायिक हैं । अस्तिकायिक का तात्पर्य है-प्रदेशबहुत्व और अवयवीवान् द्रव्य । काल ऐसा नहीं, अतः उसे अनस्तिकायिक कहा गया है । रूपी का अर्थ है- स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण वाला पदार्थ । यहाँ धर्म और अधर्म एक विशेष परिभाषा लिए हुए है । धर्म का तात्पर्य है- जो गति में सहायक हो और अधर्म का तात्पर्य ह-जो स्थिति में सहायक हो। पीव अपंवा आत्मा : ' प्रायः सभी दर्शनों ने जीव को केन्द्र मानकर अपने-अपने तत्त्वज्ञान का भवन खड़ा किया है । इसलिए उसके अस्तित्व के विषय में साधारणत: उनमें कोई मतभंद नहीं । मतभेद का वास्तविक विषय रहा है आत्मा का स्वरूप । प्राचीनतम रूप:
बौर साहित्य में जैनदर्शन सम्मत आत्मा के स्वरूप पर किञ्चित् प्रकाश पड़ता है । जब भगवान् बुद्ध शाक्यदेश में कपिलवस्तु के न्यग्रोधाराम में विहार कर रहे थे कि महानाम शाक्य उनके पास आया और बैठ गया। बुद्ध ने उससे बातचीत करते हुए कहा-महानाम ! एक बार में राजगह के प्रभाव पर्वत पर