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प्रारम्भ में 'द्रव्य' शब्द की जितने प्रकार से व्याल्या की गई है वह जैन दर्शन सम्मत है। जैनेतर दर्शनों में उनमें से किसी एक प्रकार को स्वीकार किया गया है। अतः मतभेद होना स्वाभाविक है। परन्तु यह मतभेद स्वीकृति पूर्वक है। बौद्धों ने गुण समुदाय को 'द्रव्य' कहा है। न्याय-बोषिक बादि दर्शनों में 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग गुण-कर्माधार अर्थ में हुवा है। द्रव्य के सास जैन दर्शन में गुण, पर्याय अथवा परिणाम शब्दों का प्रयोग होता है उसके स्थान पर जैनतर दर्शनों में 'गुण' शब्द का प्रयोग अधिक हुआ है।
द्रव्य और गुणों के बीच सम्बन्ध की दृष्टि से बौद्ध, न्याय-वैशेषिक मावि दर्शन मेदवादी हैं। जनदर्शन में भेदवाद, अभेदवाद, और भेदाभेक्वाद ये तीनों परम्परा मिलती हैं । कुन्दकुन्द, उमास्वाति, विद्यानन्द आदि आचार्यों ने मुण और पर्याय में भेदवाद की स्थापना की। उनके अनुसार गुण वह है जो एक मात्र व्यके माश्रय रहता है। जैसे-जीव में रहने वाले ज्ञानादि गुण ।' उत्तरकाल में इसे और अधिक स्पष्ट किया गया और कहा गया कि गुण वे हैं जो ग्याषित तो हों पर स्वत: निर्गुण हों। द्रव्य और गुण के आश्रित रहने वाले धर्म को 'पर्याय' कहा जाता है। गुण द्रव्य के साप सदैव रहते हैं पर पर्याय कम-क्रम से बदलती रहती हैं। द्रव्य का परिवर्तन ही पर्याय है। इसे 'भेदवाद' कहा गया है। अकलंक, अमृतचन्द आदि बाचार्यों न 'अभेदवाद' की स्थापना की। इसके पूर्व सिद्धसेन तथा हरिभद्र आचार्यों ने गुण और पर्याय के बीच अभेदवाद को स्वीकार किया । वस्तुतः गुण और पर्याय को कपावित्. भिन्न और कञ्चित् अभिन्न ही माना जाना चाहिए।'
सामान्य रूप से द्रव्य के लिए सत् अथवा सत्व, सत्ता, सामान्य, ब, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि इन नव शब्दों का प्रयोग होता है। पिकालवी पर्यायों के अभिन्न सम्बन्ध रूप समुदाय को भी 'द्रव्य' कहा है। और द्रव्य के विकार अथवा परिवर्तन को 'पर्याय' कहा है । अंश, पर्याय, भाग, हार, विषा, प्रकार तथा भेद, छेद और भंग ये सभी समानार्थक शब्द हैं। इस तरह बनवाईन सदसत्कार्यवादी है।
१. लोकवार्तिक, १२ (विगत पृष्ठ का उखरण) २. एगवन्दस्सिया गुणा, उत्तराध्ययन, २८६. ३.व्यायवा निर्गुणा गुणा:-तत्वापसून, ५-४१. ४.पन्यास्तिकाय, भाषा १२.
मानवीमांसा, १००