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सिद्धान्तों को उसमें चरम सत्य माना गया है । परन्तु जनदर्शन में भेदाभेदवाद को स्वीकार किया गया है। जितना सत्य भेद में है उतना ही सत्य अभेद में है। एक-दूसरे के बिना उनका अस्तित्व नहीं । पदार्थ न सामान्यात्मक है और न केवल विशेषात्मक, बल्कि सामान्यविशेषात्मक है । द्रव्य का यही वास्तविक स्वरूप है । उसका यह स्वभाव है । अनेकां तात्मिक दृष्टि से वह कथंचित् भिन्न है ओर कथंचित् अभिन्न है । अभेद द्रव्य का प्रतीक है और भेद पर्याय का । द्रव्य और पयार्यो का यह स्वाभाविक परिणमन होता रहता है । उपादान और निमित्त कारणों के माध्यम से पदार्थों का संगठन और विघटन भी होता रहता है । इसके लिए किसी ईश्वर आदि की आवश्यकता नहीं रहती ।
वैदिक दर्शनों में द्रव्य का स्वरूप :
न्याय-वैशेषिक दर्शन में द्रव्यों की संख्या ९ मानी जाती है-पृथ्वी, अप्, तेजस्, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा, और मनस् । इन्हीं द्रव्यों और उनके विभिन्न गुणों और सम्बन्धों से समूचे संस्कार की सृष्टि होती है । इस सृष्टि में गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये सात पदार्थ सहयोगी बनते हैं ।" जैनदर्शन इन पदार्थों को द्रव्य की ही पर्यायों के रूप में स्वीकार करता है । द्रव्य और गुण बिलकुल पृथक् नहीं होते । ये असत्कार्य
वादी हैं ।
संबलित मानते हैं पर
सत्, रज और तम
न्याय-वैशेषिक भौतिक जगत को अनेक कारणों से सांख्य-योग एकमात्र प्रकृति को उसका मूल मानते हैं । ये तीन गुण हैं जो पुरुष को बांधने का काम करते हैं । प्रकृति नित्य और गति - शील है । पुरुष के संसर्ग से परिवर्तन होता है । असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं होती और सत् का विनाश नहीं होता । विनाश का तात्पर्य है- मात्र आकृति में परिवर्तन होना । यह परिवर्तन आवर्ती होता है अर्थात् सर्ग और प्रलय का काल एक के बाद एक आता है । सांख्य योग सत्कार्यवादी हैं । उनके मत में कार्य सदैव अपने उपादान कारण में अव्यक्त रूप से विद्यमान रहता है ।
मीमांसक बाहघार्थवादी हैं । वे नित्य द्रव्य के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं और यह मानते हैं कि द्रव्य स्थायी रहता है और उनके गुण अथवा उनकी पर्यायें परिवर्तनशील हुआ करती हैं । इसे 'परिणामवाद' कहा जाता है । " यहाँ भेदाभेद व्यवस्था मानी गई है तथा द्रव्य अनेक बताये गये हैं । उनके परिवर्तन में ईश्वर कारण रूप नहीं ।
१. न्यायसूत्र भाष्य, १-१.९.