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विहार कर रहा था। उस समय बहुत सारे निगण्ठ ऋषि-गिरि की कालसिला 'परखड़े रहने का ही व्रत लेकर आसन छोड़ने का उपक्रम करते थे। वे दुःखद, कटुप
तीव्र वेदना झेल रहे थे । मैं सन्ध्याकालीन ध्यान समाप्तकर एक दिन उनके 'पास गया और उनसे कहा-आवसो ! निगण्ठो ! तुम खड़े क्यों हो ? भासन छोड़कर दुःखद व कटु तीव्र वेदना क्यों झेल रहे हो"? निगण्ठों ने मुझे तत्काल उत्तर दिया- आवुस ! निगण्ठ नातपुत्त सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं । अपरिशेष ज्ञानदर्जन को जानते हैं । चलते, खड़े रहते, सोते, जागते, सर्वदा उन्हें मान-दर्शन उपस्थित रहता है । वे हमें प्रेरणा देते हैं; निगण्ठो! पूर्वकृत कर्मों को इस कड़ी दुष्कर क्रिया (तपस्या) से समाप्त करो । वर्तमान में तुम काय, वचन व मन से संवृत हो; अत: यह अनुष्ठान तुम्हारे भावी-पापकर्मों का अकारक है। इस प्रकार पूर्वकृत कर्मों का तपस्या से अन्त हो जाने पर और नवीन कर्मों के अनागमन से तुम्हारा चित्त भविष्य में अनाश्रव होगा; माधव न होने से कर्मक्षय होगा। कर्मक्षय से दुःखक्षय, दुःखक्षय से वेदनाक्षय और वेदनामय से सभी दु:ख नष्ट हो जायेंगे । हमें यह विचार रुचिकर प्रतीत होता है । अतः हम इस क्रिया से सन्तुष्ट हैं । (तंच पनम्हाकं रुच्चति व समति चेव खमतिष तेन चम्हं अत्तमना'ति)। - इस उद्धरण में जैनधर्म के मूल सप्त तत्त्वों का प्रारम्भिक रूप दिवाई देता है
i) आत्मा के अस्तित्व की स्वीकृति ।। ii) सुख-दुःख पूर्वकृत कर्मों का फल है । iii) कर्मों का आश्रव और बन्ध होता है । iv) सम्यग्ज्ञान पूर्वक किये गये तप से कर्मों की संवर और निर्बरा
होती है। v) समस्त कर्मों की संवर-निर्जरा होने पर दुःखादि का क्षय हो पाता
है । यही मोक्ष है। ब्रह्मजालसुत्त में बासठ प्रकार की मियादृष्टियों का वर्णन मिलता है१८ आदि सम्बन्धी और ४४ अन्तसम्बन्धी । इनमें अन्त सम्बन्धी मियादष्टियों में उसमाषातनिका सञ्जीवाद विशेष उल्लेखनीय है । इसके मात्मा सम्बन्धी सोलह मत हैं जिनपर श्रमणों और ब्राह्मणों में शास्त्रार्थ हुमा करता था।' निगण्ठ नातपुत्त भ. महावीर के विचार भी इनमें खोजे जा सकते हैं।
१. मज्झिमनिकाय, चूलदुक्सक्सन्धसुत्त, १४-२-२ पृ. १२६-१२१देवपत्तन्त, ३.१.१. २. उदान, पृ. ६७ (रोमन); दीपनिकाय, प्रपन भाग (रो.) १९५, वृत्तनिकाय, (रो.) द्वितीय भाग,.