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पर देवविषय (वि. सं. १३७०) ने २१०० श्लोक प्रमाण टीकायें लिची है।
सिद्धान्त साहित्य में टीकात्मक ग्रन्थों की संख्या अवश्य अधिक है पर उनमें मौलिकता की कमी नहीं । कुछ मौलिक ग्रन्य भी है । जैसे अमृतवन सूरि का पुरुषार्थ सिरपुपाय, व तत्वार्थसार, माषनन्दी (१३ वीं शती) का शास्त्रसार समुच्चय, तथा जिनहर्ष (वि. सं. १५०२) का विशतिस्थानकविचारामृतसंग्रह (२८०० श्लोक परिमाण) उल्लेखनीय है।
उपदेशात्मक साहित्य भी टीकात्मक अधिक है । मूलतः वे प्राकृत में लिखे गये हैं पर बाद में उन पर संस्कृत में टीकायें हुई है। जैसे उबएसमाला पर लगभग बीस संस्कृत टीकायें हैं जिनमें सिषि (वि. सं. १६२) और रत्नप्रभसूरि (वि. सं. १२३८) की टीकायें अग्रगण्य कही जा सकती है। जयशेखर (वि.सं. १४६२) की प्रबोषचिन्तामणि (१९११ पच) सोमधर्मगणी (वि. सं. १५०३) की उपदेशसप्ततिका (३००० श्लोक प्रमाण), रत्नमन्दिर गणी (वि.सं.१५१७)की उपदेशतरंगिणी, गुणभद्र (९वीं शती)का आत्मानुशासन, हरिभद्रसूरि का धर्मबिन्दु, वर्षमान (वि. सं. ११७२) का धर्मरत्नकरण्डक, आशाधर (१२३९ ई.) के सागारधर्मामृत और अनगार धर्मामृत, जयशेखर (वि. सं. १४५७) की सम्यक्त्व कौमुदी, चरित्ररत्नगणी (वि.सं. १४९९) का दानप्रदीप, उदयधर्मगणी (वि. सं. १५४३) का धर्मकल्पद्रुम, अमितगति (लगभग १००० ई.) के सुभाषितरत्नसंवोह आदि अन्य मूलतः संस्कृत में हैं । उनपर अनेक टीकायें भी लिखी गई हैं। बाव साहित्य : __उत्तरकाल में सिद्धान्त ने न्याय के क्षेत्र में प्रवेश किया। आचार्यों ने उसे भी परिपुष्ट किया। समन्तभद्र (२-३री शती)की माप्तमीमांसा, स्वयंपू. स्तोत्र और युक्त्यनुशासन इस क्षेत्र के प्राथमिक और विशिष्ट प्रन्य है। बाप्तमीमांसा पर अकलंक (७२०-७८० ई.) की अष्टाती, विवानदि (७७५८४०६.) की अष्टसहनी, और वसुनन्दि (११-१२ वीं शती) की देवागम वृत्ति उल्लेखनीय है । इनके अतिरिक्त मल्लवादी (३५०-४३० ई.) का नवचक्र, पूज्यपाद देवनन्दी (पंचम शती) की सर्वार्थसिद्धि, सिखसेन (६-९वीं शती) के सम्मतितर्क और न्यायावतार, हरिभवसूरि (७०५-७७५ ६.) के शास्त्रबार्तासमुच्चय, षड्दर्शन समुच्चय और अनेकान्त जयपताका, बकलंक (७२०-७८० ई.) के न्यायविनिश्चय, लषीयस्त्रय, सिडिविनिवषय, प्रमाण संग्रह, तत्वार्य राजवार्तिक, अष्टशती, विधानन्दि (७७५-८४०६.) की प्रमाण परीक्षा, सत्यशासन परीक्षा, बाप्तपरीक्षा, वत्वार्य श्लोकवातिक, पत्रपरीक्षा,