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सिवर्षिणि (९-१० वीं शती) की न्यायावतारटीका, माणिक्यनन्दि (१०-११ वीं शती) का परीक्षामुख, प्रभाचन्द्र (११ वीं शती) के न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड, अनन्तवीर्य (११ वीं शती) की प्रमेयरलमाला, हेमचन्द्र (१०८९-११७२ ई.) की प्रमाणमीमांसा, अन्ययोगव्यवच्छेदिका, वादिदेवसूरि (१२ वीं शती) का प्रमाणनय तत्त्वालोक, वादिराजसूरि (१२ वीं शती)के प्रमाणनिर्णय और न्यायविनिश्चय विवरण, मल्लिषेण (१३ वीं शती) की स्यावादमंजरी, गुणरत्न (१३४३-१४१८ ई.) की षड्दर्शनसमुच्चयटीका मादि ग्रन्थ जैन न्याय के आधार स्तम्भ हैं । इस युग में अनेकान्तवाद की स्थापना तार्किक ढंग से की जा चुकी थी तथा प्रत्यक्ष और परोक्ष की परिभाषाओं को स्थिर कर दिया गया था। नव्यन्याय के क्षेत्र में यशोविजय (१८ वीं शती) के नयप्रदीप, ज्ञानबिन्दु, अनेकान्त व्यवस्था, तर्कभाषा, न्यायालोक, न्यायखण्डखाब आदि ग्रन्य भी उल्लेखनीय हैं। संस्कृत साहित्य के विकास में इन दार्मनिक और न्याय विषयक ग्रन्थों का एक विशिष्ट योगदान है। इनमें ताकिक पति के माध्यम से सिद्धान्तों को प्रस्थापित गया किया है।
योग साहित्यअध्यात्मकीचरमावस्था को प्राप्त करने का सुन्दरतम साधन है। संस्कृत जैन लेखकों ने इस पर भी खूब लिखा है । पूज्यपाद का इष्टोपदेश तथा समाधिशतक प्राचीनतम रचनायें होंगी। उनके बाद हरिभद्रसूरि संभवतः प्रथम आचार्य होंगे जिन्होंने और अधिक जैन योग विषयक ग्रन्थों को संस्कृत में लिखने का उपक्रम किया । उनके प्रमुख ग्रन्थ हैं- योगबिन्दु (५२७ पद्य), योगदृष्टि समुच्चय (२२६ पद्य) और ब्रह्मसिद्धिसमुच्चय (४२३ पद्य) । इसी प्रकार हेमचन्द्र (१२ वीं शती) का योगशास्त्र, शुभचन्द्र (१३ वीं शती) का मानार्गव और रत्नशेखरसूरि (१५ वीं शती) की ध्यानदण्डकस्तुति तथा आशाधर का आध्यात्मरहस्य आदि अन्य संस्कृत में लिखे गये हैं । इसी प्रकार की योग विषयक और भी कृतियां हैं।
योग साधना के लिए अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन आवश्यक है। संस्कृत में बादशानुप्रेक्षा नाम से तीन ग्रन्थ मिलते हैं- सोमदेवकृत, कल्याणकीविकृत मोर अन्नातकर्तृक । मुनि सुन्दरसूरि का आध्यात्मकल्पद्रुम, यशोविषय गणि का आध्यात्मसार और आध्यात्ममोपनिषद्, राजमल्ल (वि.सं. १९४१) का बाध्यात्मकमलमार्तण्ड, सोमदेव की अध्यात्मतरंगणी बादि अन्य बाध्यात्म से से सम्बद्ध हैं । इन ग्रन्थों में मन-वचन-काय की प्रवृत्तियों को संयमितकर परम विशुवावस्था को कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इसका वर्णन किया गया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा नामक प्राकृत ग्रन्थ पर शुभचन्द्र भट्टारक (१५५६ ई.) की संस्कृत टीका भी उपलब्ध है।