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है। उसमें प्राकृत के तीन स्तर मिलते है-१. सूत्रों की प्राकृत जो प्राचीनतम होरसेनी के रूप में है, २. उद्धत गावाबों की प्राकृत, और ३. गप प्रान्त । यहाँ शौरसेनी प्राकृत के साथ-साथ बर्धमागधी प्राकृत की कतिपय विशेषता दृष्टव्य है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से प्राकृत के ये तीन स्तर उसके भाषा विकासात्मक रूप के परिचायक हैं। शौरसेनी के महाराष्ट्री प्राकृत का मिश्रण उत्तरकाल में मिलने लगता है। दण्डी के अनुसार शौरसेनी ने ही महाराष्ट्र में नया रूप धारण किया जिसे महाराष्ट्री प्राकृत कहा जाता है । वही उत्कृष्ट शाकृत है (महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदु:-काव्यादर्श)। सेतुबन्ध बादि महाकाव्य इसी भाषा में लिखे गये (भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पु. ७६-७७)।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय का कर्म साहित्य उसके कर्मप्रकृति, शतक, पञ्चसंग्रह और सप्ततिका नामक कर्मग्रन्यों पर आधारित है। कर्मप्रकृति पर दो संस्कृत टीकायें हैं-एक मलयगिरिकत (१२-१३ वीं शती) वृत्ति (८००० श्लोक प्रमाण) और दूसरी यशोविजय (१८ वीं शती) कृत वृत्ति (१३००. श्लोक प्रमाण) । पञ्चसंग्रह की व्याख्याओं में दो व्याख्यायें महत्वपूर्ण है-चन्द्रर्षि महत्तरकृत स्वोपनवृत्ति (९००० श्लोक प्रमाण) तथा मलयगिरिकृत वृहवृत्ति (१८८५० श्लोक प्रमाण) । छोटी-मोटी और भी टीकायें प्रकाशित हुई हैं।
३. सिद्धान्त साहित्य भाचार्य उमास्वाति (वि. १-२ शती) प्रथम आचार्य है जिन्होंने प्राकृत में लिखित सिद्धान्त साहित्य को संस्कृत में सूत्रबद्ध किया । उनके तत्वार्यसूत्र पर ही उत्तरकाल में सर्वार्थ सिदि, तत्वार्थराजवार्तिक, तत्वार्थश्लोकवार्तिक मादि अनेक सहकाय अन्यों की रचना हुई। उसके बाद आचार्य कुन्दकुन्द के प्राकृत ग्रन्थों पर संस्कृत में अनेक टीकायें रची गई। प्रवचनसार बार समयसार पर अमृतचन्द्र (१०वीं शती) और जयसेन (१२ वीं शती) की टीका, नियमसार पर पद्मप्रम मलधारीदेव, पञ्चास्तिकाय पर अमृतचन्द्र, बबसेन, भानचन्द्र, मल्लिग, प्रमाचन्द्र आदि की टीकायें तवा बटुपाहुड पर भुतसागर, अमृतचन्द्र, आदि की टीकायें मिलती है । जीववियार पर पाठक रत्नाकर (वि.सं. १६१०), मेघनन्दन (वि. सं. १६१०), समयसुन्दर तवा
बनाकल्याण (वि.सं. १८५९) ने, पीवसमास पर हेमचन्द्र (६६२७ श्लोक :प्रमाण) ने, समयलित्तसमास पर हरिभद्रसूरि, मलयगिरि सूरि व रत्नशेवरसूरि मे, पबवणसारद्वार पर सिरसेनसूरि (वि.सं. १२४८) ने १६५०० श्लोक प्रमाण बोर उपयप्रम ने ३२०३ पलोक प्रमाण, तवा सत्तरिसयठामपवरण