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लोककल्याण का हेतु गर्भित होता है इसलिए वह उपादेय है। शेष त्याज्य है । विषय की दृष्टि से कथा के चार भेद हैं-आक्षेपणी, अर्थ, काम और मिश्रकथा । धर्मकथा के भी चार भेद हैं-आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निवेदनी । जैनाचार्यो ने इसी प्रकार को अधिक अपनाया है । पानों के आधार पर उन्हें दिव्य, मानुष और मिश्र कथाओं के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है । ' तीसरा वर्गीकरण भाषा की दृष्टि से हुआ है-संस्कृत, प्राकृत और मिश्र । उद्योतनसूरि ने शैली की दृष्टि से कथाके पांच मंद किये हैं-सकलकथा, खण्डका, उल्लापकथा, परिहासकथा और संकीर्णकथा । प्राकृत साहित्य में मिश्रकषायें अधिक मिलती हैं । इन सभी कथा ग्रन्थों का परिचय देना यहाँ सरल नहीं । इसलिए विशिष्ट ग्रन्थों का ही यहाँ उल्लेख किया जा रहा है ।
कचासंग्रह :
जैनाचार्यों ने कुछ ऐसी धर्मकथाओं का संग्रह किया है जो साहित्यकार के लिए सदैव उपजीव्य रहा है । धर्मदासगणि (१० वीं शती) के उपदेशमालाप्रकरण (५४२ गा.) में ३१० कथानकों का संग्रह है । जयसिंहरि (वि. सं. ९१५ ) का धर्मोपदेशमाला विवरण (१५६ कथायें), देवभद्रसूरि (सं. ११०८) का कहारयणकोस (१२३०० श्लोक प्रमाण और ५० कथायें), देवेन्द्रगणि (सं. ११२९)का अक्खाणयमणिकोस (१२७ कथानक) आदि महत्त्वपूर्ण कथासंग्रह हैं जिनमें धर्म के विभिन्न आयामों पर कथानकों के माध्यम से दृष्टान्त प्रस्तुत किये गये हैं । ये दृष्टान्त सर्वसाधारण के लिए बहुत उपयोगी हैं।
उपर्युक्त कथानकों अथवा लोककथाओं का आश्रय लेकर कुछ स्वतन्त कथा साहित्य का भी निर्माण किया गया है जिनमें धर्माराधना के विविध पक्षों की प्रस्तुति मिलती है। उदाहरणतः हरिभद्रसूरि (सं. ७५७ - ८२७) की 'समराइच्चकहा' ऐसा ही प्रन्थ है जिसमें महाराष्ट्री प्राकृत गद्य में ९ प्रकरण हैं और उनमें समरादित्य और गिरिसेन के ९ भवों का सुन्दर वर्णन है । इसी कवि का धूर्तास्यान (४८० गा.) भी अपने ढंग की एक निराली कृति है जिसमें हास्य और व्यंग्यपूर्ण मनोरंजक कथायें निबद्ध हैं। जयराम की प्राकृत धम्मपरिक्या भी इसी शैली में रची गई एक उत्तम कृति है ।
यशोधर और श्रीपाल के कथानक भी आचार्यो को बड़े रुचिकर प्रतीत हुए । सिरिवालकहा (१३४२ गा.) को रत्नशेखरसूरि ने संकलित किया और हेमचन्द्रसाधु (सं. १४२८)ने उसे लिपिबद्ध किया। इसी के आधार पर प्रद्युम्नरि
१. धवलाटीका, पुस्तक - १, पृ.१०४. २. समराज्यकहा, पु. २: बसर्वकालिक, गाया, १८८
३. श्रीकामकहा-३६
४. क्रममा ४