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और विनयविजय (सं. १६८३) ने प्राकृत कथा-रचनायें की । सुकौशल, सुकुमाल और जिनदत्त के चरित भी लेखकों के लिए उपजीव्य कथानक रहे हैं।
कतिपय रचनायें नारी पात्र प्रधान हैं । पादलिप्तसूरि रचित तरंगवईकहा इसी प्रकार की रचना है। यह अपने मूलरूप में उपलब्ध नहीं पर नेमिचन्द्रगणि ने इसी को तरंगलोला के नाम से संक्षिप्त रूपान्तरित कपाओं (१६४२ गा.) में प्रस्तुत किया है । उद्योतनसूरि (सं. ८३५) की कुवलयमाला (१३००० श्लोक प्रमाण) महाराष्ट्री प्राकृत में गद्य-पद्य मयी चम्पू शैली में लिखी गई इसी प्रकार की अनुपमकृति है जिसे हम महाकाव्य कह सकते हैं । गुणपालमुनि (सं. १२६४) का इसिदत्ताचरिय (१५५० ग्रन्थाग्रप्रमाण), धनेश्वरसूरि (सं. १०९५) का सुरसुन्दरीचरिय (४००१ गा.), देवेन्द्रसूरि (सं. १३२३) का सुदसणाचरिय (४००२ गा.) आदि रचनायें भी यहां उल्लेखनीय हैं। इन कथा-प्रन्यों में नारी में माप्त भावनाओं का सुन्दर विश्लेषण मिलता है।
कुछ कथा अन्य ऐसे भी रचे गये हैं जिनका विशेष सम्बन्ध किसी पर्व, पूजा अथवा स्तोत्र से रहा है। ऐसे अन्यों में श्रुतपंचमी के माहात्म्य को प्रदर्शित करने वाला 'नाणपंचमीकहाबो' अन्य सर्वप्रथम उल्लेखनीय है । इसमें १. कथायें और २८०४ गाथायें हैं । इन कथाओं में भविस्सयत्तकहा ने उत्तरकालीन आचार्यों को विशेष प्रभावित किया है । इसके अतिरिक्त एकादशीव्रतकथा (१३७ गा.) आदि ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं ।
१७. लाक्षणिक साहित्य • लाक्षणिक साहित्य से हमारा तात्पर्य है- व्याकरण, कोश, छन्द, ज्योतिष, निमित्त व शिल्पादि विषायें। इन सभी विधाओं पर प्राकृत रचनायें मिलती हैं। वषुयोगदारसुत्त आदि प्राकृत आगम साहित्य में व्याकरण के कुछ सिखान्त परिलक्षित होते हैं पर आश्चर्य की बात है कि अभी तक प्राकृत भाषा में लिखा कोई भी प्राकृत व्याकरण उपलब्ध नहीं हुआ। समन्तभद्र, वीरसेन और देवेन्द्र सरि के प्राकृत व्याकरणों का उल्लेख अवश्य मिलता है पर अभी तक वे काश में नहीं बा पाये । संभव है, वे अन्य प्राकृत में लिखे गये हों। संस्कृत भाषा में लिखे गये, प्राकृत व्याकरणों में चण्ड का स्ववृत्तिसहित प्राकृत व्याकरण (९९ अपवा १०३ सूत्र), हेमचन्द्रसूरि का सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन (१११९ सूब), त्रिविक्रम (१३ वीं शती) का प्राकृत शब्दानुशासन (१०३६ सूत्र) आदि अन्य विशेष उल्लेखनीय हैं। इन ग्रन्थों में प्राकृत और अपभ्रंश के व्याकरण -विषयक नियमों-उपनियमों का सुन्दर वर्णन मिलता है । १. विषेष देखिये, बामुनिक युग में प्राकृत व्याकरण-शास्त्र का अध्ययन-अनुसन्धान-रा.भागबन्द बैन, संकर-
पारमाकरण बोर को को परम्परा, पर, १९.७, पृ. २१९-२९१.