________________
वित्रण करता है । इस पन्थ को पढ़कर भट्टिकाव्य, राजतरंगिणी तथा विक्रमांकदेवचरित जैसे अन्य स्मृति-पथ में आने लगते हैं।
इतिहास के निर्माण में प्रशस्तियों और अभिलेखों का भी महत्त्व होता है। श्रीचन्द्रसूरि के मुनिसुव्वय सामिचरिय (सं. ११९३) की १०० गाथाओं की प्रशस्ति में संघ, शाकम्भरी नरेश पृथ्वीराज, सौराष्ट्र नरेश बेंगार मादि का वर्णन है । साहित्य जहां मौन हो जाता है वहाँ अभिलेख के रूप में बारली (अजमेर से ३२ मील दूर) में प्राप्त पाषाणस्तम्भ पर खुदी चार पंक्तियां हैं जिनमें वीरनिर्वाण संवत् ८४ उत्कीर्ण है। अशोक के लेख इसके बाद के हैं। उनमें भी प्राकृत के विविध रूप दिखाई देते हैं । सम्राट् खारवेल का हाथी गुम्फा शिलालेख, मथुरा और प्रमोसा से प्राप्त शिलालेख तथा घटियाल (जोधपुर) का शिलालेख (सं. ९१८) इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं । मूर्ति लेख भी प्राकृत में मिलते हैं।
नाटकों का समावेश दृश्यकाव्य के रूप में होता है । इसमें संवाद,सं गीत, नृत्य, और अभिनय संनिहित होता है । संस्कृत नाटकों में साधारणतः स्त्रियां, विदूषक, तथा निम्नवर्ग के किंकर, धूर्त, विट, भूत, पिशाच आदि अधिकांश पात्र प्राकृत ही बोलते है। पूर्णतया प्राकृत में लिखा नाटक अभी तक उपलब्ध नहीं हुमा । नेमचन्द्रसूरि की सट्टककृति नयमंजरी अवश्य मिली है जो कर्पूरमंजरी के अनुकरण पर लिखी गई है । इनमें प्राकृत के नाटकों और सट्टकों के विभिन्न रूप देखने मिलते है ।
१६. कथा साहित्य जैनाचार्यों ने प्राकृत भाषा में विपुल कथा साहित्य का निर्माण किया है। उनका मुख्य उद्देश्य कर्म, दर्शन, संयम, तप, चारित्र, दान आदि के महत्त्व को स्पष्ट करता रहा है। बागम साहित्य इन कथाओं का मूल स्रोत है । आधनिक कथानों के समान यहां वस्तु, पात्र, संवाद, देशकाल, शैली और उद्देश्य के रूप में कया के अंग भी मिलते हैं। नियुक्ति, भाष्य, बुणि, टीका बादि ग्रन्थों में उपलब्ध करायें उत्तरकालीन विकास को इंगित करती हैं । यहाँ अपेक्षाकृत सरसता वीर स्पष्टता अधिक दिखाई देती है।
समूचे प्राकृत साहित्य को अनेक प्रकार से विभाजित किया गया है। बागमों के अकवा, विकया और कथा ये तीन भेद किये गये है। कथा में
१. पर्वकालिक, पा. १८८ समान कहा, १.२