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की संस्कृति भी इसमें पर्याप्त मिलती है। महाराष्ट्री प्राकृत का परिमाजित रूप यहाँ विद्यमान है । कहीं-कहीं अपभ्रंश का भी प्रभाव दिखाई देता है । इसी तरह भुवन तुंगसूरि का सीताचरित (४६५ गा.) भी उल्लेखनीय है ।
संभवतः शीलांकाचार्य से भिन्न शीलाचार्य (वि. सं. ९२५) का चउप्पन्नमहापुरिसचरिय (१०८०० श्लोक प्रमाण), भद्रेश्वरसूरि (१२ वीं शती), तथा आम्रकवि (१० वीं शती) का चउप्पन्नमहापुरिसचरिय (१०३ अधिकार), सोमप्रभाचार्य (सं. ११९९) का सुमईनाहचरिय (९६२१ एलोक प्रमाण), लक्ष्मणगणि (सं. ११९९) का सुपासनाहचरिय (८००० गा.), नेमिचन्द्रसूरि (सं. १२१६) का अनन्तनाहचरिय (१२०० गा.), श्रीचन्द्रसूरि (सं. ११९९) का मुनिसुब्बयसामिचरिय (१०९९४ गा.) तथा गुणचन्द्रसूरि (सं. ११३९) और नेमिचन्द्रसूरि (१२ वीं शती) के महावीरचरिय (क्रमशः १२०२५ और २३८५ श्लोक प्रमाण) काव्य विशेष उल्लेखनीय हैं। ये अन्य प्रायः पद्यवद्ध हैं । कथावस्तु की सजीवता व चरित्र शित्रण की मार्मिकता यहाँ स्पष्टतः दिखाई देती है।
द्वादश चक्रवतियों तथा अन्य शलाका पुरुषों पर भी प्राकृत रचनायें उपलब्ध हैं। श्रीचन्द्रसूरि (सं. १२१४) का सणंतकुमारचरिय (८१२७ श्लोक प्रमाण), संघदासगणि और धर्मदासगणि (लगभग ५ वीं शती) का वसुदेवहिण्डी (दो खण्ड) तथा गुणपालमुनि का जम्बूचरिय (१६ उद्देश) इस संदर्भ में उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं । इन काव्यों में जैनधर्म, इतिहास और संस्कृति पर प्रकाश डालने वाले अनेक स्थल हैं।
भ. महावीर के बाद होने वाले अन्य आचार्यों और साधकों पर भी प्राकृत काव्य लिखे गये हैं। तिलकसूरि (सं. १२६१) का प्रत्येक बुद्धचरित (६०५० श्लोक प्रमाण) उनमें प्रमुख है । इसके अतिरिक्त कुछ और पौराणिक काव्य मिलते हैं जो आचार्यों के चरित पर आधारित हैं जैसे हेमचन्द्र आदि की कालकाचार्य कथा ।
जैनाचार्यों ने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कतिपय प्राकृत काव्य लिखे हैं। कहीं राजा, मन्त्री, अथवा श्रेष्ठी नायक हैं तो कहीं सन्त-महात्मा के जीवन को काव्य के लिए चुना गया है। उनकी दिविजय, संघ-यात्रायें तथा अन्य प्रासंगिक वर्णनों में अतिशयोक्तियां भी झलकती हैं । वहाँ काल्पनिक चित्रण भी उभरकर सामने आये हैं। ऐसे स्थलों पर इतिहासवेत्ता को पूरी सावधानी के साथ सामग्री का चयन करना अपेक्षित है । हेमचन्द्रसूरि का द्वापर महाकाम चालुक्यवंशीय कुमारपाल महाराजा के चरित का ऐसा ही