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प्रमुख अन्य हैं। इनमें मुनि और श्रावकों की दिनचर्या, नियम, उपनियम, दर्शन, प्रायश्चित्त आदि की व्यवस्था बतायी गई है । इन ग्रन्थों पर अनेक टीकायें भी मिलती हैं।
१४. विधिविधान और भक्तिमूलक साहित्य प्राकृत में ऐसा साहित्य भी उपलब्ध होता है जिसमें आचार्यों ने भक्ति, पूजा, प्रतिष्ठा, यज्ञ, मंत्र,तंत्र,पर्व,तीर्थ आदि का वर्णन किया गया है । कुन्दकुन्द की सिखभत्ति (१२ गा.) सुदभत्ति, चरित्तभत्ति (१० गा.), अणगारभत्ति (२३ गा.), आयरियभत्ति (१० गा.) पंचगुरुभत्ति (७ गा.), तित्थयरमत्ति (८ गा.), और निब्बाणभत्ति (२७ गा.) विशेष महत्त्वपूर्ण हैं । यशोदेवसूरि का पच्चक्खाणसरूव (३२९ गा.), श्रीचन्द्रसूरि की अणुट्टाणविहि, जिनवल्लभगणि की पडिक्कण समायारी (४० गा.), देवभद्र की (पमसहविहिपयरण (११८ गा.), और जिनप्रभसूरि (वि. सं. १३६३) की विहिमग्गप्पवा (३५७५ गा.) इस संदर्भ में उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं । धनपाल का ऋषभपंचासिका (५० गा.), भद्रबाहु का उपसग्गहरस्तोत्र (२० गा.), नन्दिषेण का अजियसंतिथय, देवेन्द्रसूरि का शाश्वतचैत्यास्तव, धर्मघोषसूरि (१४ वीं शती) का भवस्तोत्र, किसी अज्ञात कवि का निर्वाण काण्ड (२१ गा.), तथा योगेन्द्रदेव (छठी शती) का निजात्माष्टकम् प्रसिद्ध स्तोत्र हैं । इन स्तोत्रों में दार्शनिक सिवान्तों के साथ ही काव्यात्मक तत्त्वों का विशेष ध्यान रखा गया है । रसात्मकता तो है ही।
१५. पौराणिक और ऐतिहासिक काव्य साहित्य जैनधर्म में ६३ शलाका महापुरुष हुए हैं जिनका जीवन चरित कवियों ने अपनी लेखनी में उतारा है। इन काव्यों का स्रोत आगम साहित्य है । इन्हें प्रबन्ध काव्य की कोटि में रखा जा । है सकता इनमें कवियों ने धर्मोपदेश, कर्मफल, बवान्तर कथायें, स्तुति, दर्शन, काव्य और संस्कृति को समाहित किया है । साधारणतः ये सभी काव्य शान्तरसानुवर्ती हैं। इनमें महा काव्य के प्रायः सभी लक्षण पटित होते हैं । लोकतत्त्वों का भी समावेश यहाँ हुमा है।
पउमचरिय (८३५१ गा.) पौराणिक महाकाव्यों में प्राचीनतम कृति है जिसकी रचना विमलासरि में वि. सं. ५३० में की। कवि ने यहां रामचरित को यथार्थवादिता की भूमिका पर खडे होकर लिखा है । उसमें उन्होंने बताकिक और अनर्गल बातों को स्थान नहीं दिया। सभी प्रकार के गुण, बलंकार, रस और छन्दों का भी उपयोग किया गया है । गुप्त-वाकाटक युग