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( लगभग ८ वीं शती) की उवएसमाला ( ५४२ गा.), हरिभद्रसूरि का उबएसपद (१०३९ गा.) व संबोहप्रकरण (१५१० गा.), हेमचन्द्रसूरि की उवएसमाला (५०५ गा.) व भवभावणा (५३१ गा.), महेन्द्रप्रभसूरि (सं. १४३६) की उवएसचितामणि (४१५ गा.), जिनरत्नसूरि (सन् १२३१) का विवेगविलास (१३२३ गा.), शुभवर्धनगणी (सं. १५५२ ) की वद्धमाणदेसना (३१६३ गा.), जयवल्लभ का वज्जालग्ग (१३३० गा.) आदि ग्रन्थ मुख्य हैं । इन कृतियों में जैनधर्म, सिद्धान्त और तत्वों का उपदेश दिया गया है और आध्यात्मिक उन्नति की दृष्टि से व्रतादि का महत्व बताया गया है । ये सभी कृतियां जैन महाराष्ट्री प्राकृत में लिखी गई हैं। उत्तर पश्चिम के जैन साहित्यकारों ने अर्धमागधी के बाद इसी भाषा को माध्यम बनाया । 'यश्रुति' इसकी विशेषता है ।
आचार्यों ने योग और बारह भावनाओं सम्बन्धी साहित्य भी प्राकृत मैं लिखा है । इसका अधिकांश साहित्य यद्यपि संस्कृत में मिलता है पर प्राकृत भी उससे अछूता नहीं रहा । हरिभद्रसूरि का झाणज्झयण ( १०६ गा. ) कुमार कार्तिकेय का बारसानुवेक्खा ( ४८९ गा.), देवचन्द्र का गुणणट्टाणसय (१०७ गा.), गुणरत्नविजय का खवगसेढी ( २७१ गा.) तथा वीरसेखरविजय का मूलपesfosबन्ध (८७६ गा.) उल्लेखनीय हैं। इन ग्रन्थों में यम, नियम आदि के माध्यम से मुक्तिमार्ग प्राप्ति को निर्दिष्ट किया गया है । प्राचीन भारतीय योगसाधना को किस प्रकार विशुद्ध आध्यात्मिक साधना का माध्यम बनाया जा सकता है इसका निदर्शन इन आचार्यों ने इन कृतियों में बड़ी सफलता पूर्वक किया है ।
१३. आचार साहित्य
आचार साहित्य में सागार और अनगार के व्रतों और नियमों का विधान रहता है । वट्टकेर (लगभग ३ री शती) का मूलाचार (१५५२ गा.), शिवार्य (लगभग तृतीय शती) का भगवइ आराहणा (२१६६ गा.) और वसुनन्दी (१३ वीं शती) का उवासयामयणं (५४६ गा.) शौरसेनी प्राकृत में लिखे कुछ विशिष्ट ग्रन्थ हैं जिनमें मुनियों और श्रावकों के आचार-विचार का विस्तृत वर्णन है ।
इसी तरह हरिभद्रसूरि के पंचवत्थुग (१७१४ गा.), पंचासग (८५० गा.), सावयपरणति (४०५ गा.) और सावयधम्मविहि (१२० गा.), प्रद्युम्नसूरि की मूलसिद्धि (२५२ गा.), वीरभद्र (सं. १०७८) की आराहणापडाया (९९० गा.), देवेन्दसूरि की सडदिणकिच्व (३४४ गा.) आदि जैन महाराष्ट्री में लिखे