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लगभग ९०० - १००० ) की, उत्तराध्ययन पर शिष्यहिता टीका शान्तिसूरि ( ११ वीं शती) की तथा सुखबोधा टीका देवेन्द्रगणि नेमिचन्द्र की विशेष उल्लेखनीय हैं । संस्कृत टीकाओं, विवरणों और कृतियों की तो एक लम्बी संख्या है जिसका उल्लेख करना यहाँ अप्रासंगिक होगा ।
१२.. कर्म साहित्य
पूर्वोक्त आगम साहित्य अर्धमागधी प्राकृत में लिखा गया है। इसे परम्परानुसार श्वेताम्बर सम्प्रदाय स्वीकार करता है परन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय किन्हीं कारणों वश उसे 'लुप्त' हुआ मानता है । उसके अनुसार लुप्त आगम का आंशिक ज्ञान मुनि परम्परा में सुरक्षित रहा । उसी के आधार पर आचार्य घरसेन के सान्निध्य में षट्खण्डागम की रचना हुई ।
षट्खण्डागम " दृष्टिवाद" नामक बारहवें अंग के अन्तर्गत अग्ग्रायणी नामक द्वितीय पूर्व के चयनलब्धि नामक पांचवें अधिकार के चतुर्थ पाहुड ( प्राभृत) कर्म प्रकृति पर आधारित है । इसलिए इसे कप्रार्मभृत भी कहा जाता है । इसके प्रारम्भिक भाग सत्प्ररूपणा के रचयिता पुष्पदन्त हैं और शेष भाग को आचार्य भूतबलि ने लिखा है । इनका समय महावीर निर्वाण के ६००-७०० वर्ष बाद माना जाता है ।" सत्प्ररूपणा में १७७ सूत्र हैं । शेष ग्रन्थ ६००० सूत्रों में रचित कर्म प्राभृत के छ: खण्ड हैं- जीवट्ठाण (२३७५ सूत्र ), खुद्दाबन्ध (१५८२ सूत्र), बन्धसामित्तविचय ( ३२४ सूत्र ), वेदना ( १४४९ सूत्र ), वग्गणा (९६२ सूत्र और महाबन्ध (सात अधिकार ) । इनमें कर्म और उनकी विविध प्रकृतियों का विस्तृत विवेचन मिलता है । इस पर निम्नलिखित टीकायें लिखी गई हैं । इन टीकाओं में " धवला टीका को छोड़कर शेष सभी, अनुपलब्ध हैं । इनकी भाषा शौरसेनी प्राकृत है
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1) प्रथम तीन खण्डों पर कुन्दकुन्दाचार्य की प्राकृत टीका ( १२००० श्लोक प्रमाण)
ii) प्रथम पांच खण्डों पर शास्त्रकुण्डकृत पद्धतिनामक प्राकृत- संस्कृतकन्नड मिश्रित टीका ( १२००० श्लोक प्रमाण) ।
iii) छठे खण्ड पर तुम्बूलाचार्यकृत प्राकृत पंजिका (६०००० लोक प्रमाण) iv) वीरसेन (८१६ ई.) की प्राकृत संस्कृत मिश्रित टीका ( ७२००० श्लोक प्रमाण)
१. षट्खण्डागम पुस्तक १, प्रस्तावना, पू. २१-३१.