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दृष्टिवाद के ही ज्ञानप्रवाद नामक पांचवें पूर्व की दसवीं वस्तु के पेज्जदोस नामक तृतीय प्रामृत से 'कषायप्राभृत' (कसाय पाहुड) की उत्पत्ति हुई । इसे 'पेज्जदोसपाहुड' भी कहा गया है। आचार्य गुणधर ने इसकी रचना भ. महावीर के परिनिर्वाण के ६८३ वर्ष बाद की । इसमें १६०० पद एवं १८० किंवा २३३ गाथायें और १५ अर्थाधिकार हैं । इसपर यतिवृषभ ने विक्रम की छठी शती में छः हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखा । उस पर वीरसेन ने सन् ८७४ में वीस हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका लिखी । इस अधूरी टीका को उनके शिष्य जयसेन (जिनसेन) ने चालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका और लिखकर ग्रन्थ समाप्त किया। इनके अतिरिक्त उच्चारणाचार्यकृत उच्चारणवृत्ति, शामकुण्डकृत पद्धतिटीका, तुम्बूलाचार्यकुत चूड़ामणिव्याख्या तथा वप्पदेवगुरुकृत व्याख्याप्रज्ञप्तिवृत्ति नामक टीकाओं का उल्लेख मिलता है पर आज वे उपलब्ध नहीं हैं। इन सभी टीका ग्रन्थों में कर्म की विविध व्याख्या की गई है।
इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने विक्रम की ११ वीं शती में 'गोमट्टसार' की रचना की । वे चामुण्डराय के गुरु थे जिन्हें गोमट्टराय भी कहा जाता था। गोमट्टसार के दो भाग है-जीवकाण्ड (७३३ गा.) और कर्मकाण्ड (९७२ गा.) । जीवकाण्ड में जीव, स्थान, क्षुद्रबन्ध, बन्धस्वामी और वेदना इन पांच विषयों का विवेचन है । कर्मकाण्ड में कर्म के भेद-प्रभेदों की व्याख्या की गई है। इसी लेखक की 'लब्धिसार' (२६१ गा.) नामक एक और रचना मिलती है । लगभग आठवीं शती में लिखी किसी अज्ञात विद्वान की 'पञ्चसंग्रह' (१३०९ गा.) नामक कृति भी उपलब्ध हुई है । इसमें कर्मस्तव आदि पांच प्रकरण हैं । प्रायः ये सभी ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत में लिखे गये हैं । आचार्य कुन्दकुन्द, वट्टकर और शिवार्य के साहित्य को इसमें
और जोड़ दिया जाय तो यह समूचा साहित्य दिगम्बर सम्प्रदाय का आगम साहित्य कहा जा सकता है।
इन ग्रन्थों के अतिरिक्त शिवशर्मसूरि (वि. की पांचवीं शती) की कर्मप्रकृति (४७५ गा.), उस पर किसी अज्ञात विद्वान की सात हजार श्लोक प्रमाण चूणि, वीरशेखरविजय का ठिइबन्ध (८७६ गा.) तथा खवगसेढी-और चन्दसि महत्तर का पंचसंग्रह (१००० गा.) विशिष्ट कर्मग्रन्थ हैं। गर्षि (वि. की १० वीं शती) का कर्मविवाग, अज्ञात कवि का कर्मस्तव और बन्धस्वामित्व, जिनबल्लभगणि की षडसीति, शिवशर्मसूरि का शतक और अज्ञात कवि की सप्ततिका ये प्राचीन षट् कर्मग्रन्थ कहे जाते हैं । जिनबल्लभगणि (वि. की १२ वीं शती) का सार्धशतक (१५५ गा.) भी स्मरणीय है । देवेन्द्रसूरि (१३ वीं शती) के कर्मविपाक (६० गा.), कर्मस्तव (३४ गा.),