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किया है । योग, मंगल, पंचज्ञान, सामायिक, निक्षेप, अनुयोग, गणध रवाद, आत्मा और कर्म, अष्टनिन्हव, प्रायश्चित्तविधान आदि का विस्तृत विवेचन मिलता है । जिनभद्र का ही दूसरा भाष्य 'जीतकल्प' (१०३ गा.) पर है । जिसमें प्रायश्चित्तों का वर्णन है । इसी पर एक स्वोपज्ञभाष्य ( २६०६ गाषायें ) भी मिलता है जिसमें वृहत्कल्प, लघुभाष्य, व्यवहारभाष्य, पंचकल्प, महाभाष्य, पिण्डनिर्युक्ति आदि की गाथायें शब्दशः उद्धृत हैं ।
बृहत्कल्प लघुभाष्य के रचयिता संघदासगणि क्षमाश्रमण जिनभद्र के पूर्ववर्ती हैं जिन्होंने इसे छ: उद्देशों और ६४९० गाथाओं में पूरा किया । इसमें जिनकल्पिक और स्थविर कल्पिक साधु-साध्वियों के आहार, बिहार, निवास आदि का सूक्ष्म वर्णन किया गया है। सांस्कृतिक सामग्री से यह ग्रन्थ भरा हुआ है । इन्हीं आचार्य का पंचकल्पमहाभाष्य ( २६६५ गा. ) भी मिलता है । वृहत्कल्प लघुभाष्य के समान वृहत्कल्प वृहदुभाष्य भी लिखा गया है पर दुर्भाग्य से अभीतक वह अपूर्ण ही उपलब्ध हुआ है । इस संदर्भ में व्यवहारभाष्य ( दस उद्देश ), ओघनिर्युक्ति लघुभाष्य ( ३२२ गा.), ओषनिर्युक्ति बृहद्भाष्य ( २५९७ गा.) और पिण्डनिर्युक्ति भाष्य ( ४६ गा. ) भी उल्लेखनीय है ।
१०. चूर्णि साहित्य
आगम साहित्य पर नियुक्तियों और भाष्यों के अतिरिक्त चूणियों की भी रचना हुई है । पर वे पद्य में न होकर गद्य में हैं और शुद्ध प्राकृत भाषा में न होकर प्राकृत- संस्कृत मिश्रित हैं । सामान्यतः यहां संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत का प्रयोग अधिक हुआ है। चूर्णिकारों में जिनदासर्गाणमहत्तर और सिद्धसेन सूरि अग्रगण्य हैं। जिनदास गणिमहत्तर (लगभग वि. सं. ६५०-७५० ) ने नन्दि, अनुयोगद्वार, आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, वृहत्कल्प, व्याख्या प्रज्ञप्ति, निशीथ और दशाश्रुत्तस्कन्ध पर चूर्णियां लिखी है तथा जीतकल्प चूणि के कर्ता सिद्धसेन सूरि (वि. सं. १२२७ ) हैं । इनके अतिरिक्त जीवाभिगम, महानिशीथ, व्यवहार, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थों पर भी चूर्णियां लिखी गई हैं । इन चूर्णियों में सांस्कृतिक तथा कथात्मक सामग्री भरी हुई है ।
११. टीका साहित्य
आगम को और भी स्पष्ट करने के लिए टीकायें लिखी गई हैं । इनकी भाषा प्रधानतः संस्कृत है पर कथा भाग अधिकांशत: प्राकृत में मिलता है । आवश्यक, दशवेकालिक, नन्दी और अनुयोगद्वार पर हरिभद्रसूरि (लगभग ७०० - ७७० ई.) की, आचारांग और सूत्रकृतांग पर शीलांकाचार्य (वि. सं.