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किसी अन्य शक्ति अथवा ईश्वर पर निर्भर नही है । वह निर्भर है स्वकृत कर्मों पर । इस प्रकार जैन दर्शन मे आत्मनिर्भरता पर सर्वाधिक बल दिया गया है। सृष्टि-रचना और ईश्वरत्व के रूप में अपने पुरुषार्थ-पराक्रम के वल पर मानव चेतना के चरम विकास (चेतना के ऊर्वीकरण) के सिद्धान्त ने धर्म और विज्ञान के अन्तर को कम कर दिया। अब विचारक इस दिशा मे सोचने लगे है कि धर्म और विज्ञान एक दूसरे के विरोधी नही वरन् पूरक है । दोनो की पद्धति और प्रक्रिया मे अन्तर होते हुये भो दोनो का उद्देश्य कल्याण है, मगल है ।
धर्म का सच्चा स्वरूप आज का बुद्धिजीवी धर्म का नाम लेते ही चौकने लगता है क्योकि धर्म का जो ऐतिहासिक स्वरूप उसके सामने रखा गया है, वह सम्प्रदायवाद, जातिवाद और बाह्य आडम्बरो से युक्त है। धर्म के साथ जो धारणा बद्धमूल है वह अतीत और भविष्य की है। उसमे वर्तमान जीवन का स्पन्दन न होकर अतीत का गौरव और अनागत का स्वप्न-सुख है। जीवन-सघर्ष से पलायन का भाव है। प्रवृत्ति की उपेक्षा और निवृत्ति का प्राधान्य है। देवी-देवताओ का प्रावल्य और मानव-पुरुषार्थ के प्रति हेय भाव है। धर्म के इस स्वरूप को भला कौन बुद्धिशील स्वीकार करेगा ? भगवान् महावीर, गौतम बुद्ध और अन्य क्रान्तिपुरुषो ने धर्म के नाम पर प्रचलित ढोग और विकृतियो का खुलकर विरोध किया और अपने चिन्तन व अनुभव से धर्म के स्वरूप को सही रूप मे प्रस्तुत किया। वह स्वरूप आज भी एक मान्य आदर्श है।
भगवान महावीर ने धर्म को किसी मत या सम्प्रदाय से न जोडकर मनुष्य की वत्तियो से जोडा और क्षमा, सरलता, विनम्रता, सत्य, निर्लोभता, त्याग, सयम, तप, ब्रह्मचर्य आदि की परिपालना को धर्म कहा । जो व्यक्ति धर्म के इस रूप की साधना करता है वह देवता से भी महान् है । वह देवता को नमन नही करता वरन् देवता उसे नमन करते हैं
धम्मो मगलमुक्किट्ठ, अहिंसा सजमो तवो । देवावि त नमसन्ति, जस्स धम्मे सयामणो ।'
१ दशवकालिक १/१
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