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सुखी या दुखी बनाती है और चू कि तथाकथित धार्मिक परम्पराएं मनुष्य के सुख-दुख के लिये स्वय मनुष्य को नही, वरन् ईश्वर नाम की किसी अन्य शक्ति को उत्तरदायी ठहराती रही हैं इसलिये विज्ञान ने धर्म का विरोध करना शुरू किया। मध्ययुग के उत्तरवर्तीकाल मे धर्म
और विज्ञान का यह सघर्ष उग्र बनकर प्रकट हुआ । कठोरहृदयी धार्मिको द्वारा कई वैज्ञानिक मौत के घाट उतार दिये गये और धर्म की आड मे सम्प्रदायवाद, स्वार्थवाद का बेरहमी से पोषण होने लगा । फलत धर्म कल्याण का साधन न रहकर शोपण का वाहक बन गया जिसके खिलाफ सबसे उन जिहाद छेडा कार्ल मार्क्स ने। उसने धर्म को एक प्रकार का नशा-अफीम कहा। .
___धर्म और विज्ञान की पूरकता जब हमारे देश मे जन जागरण की लहर उठी तब देश की सांस्कृतिक थाती का पुनर्मूल्याकन होने लगा। धर्मशास्त्रो मे निहित तथ्यो और आदर्शों की समसामयिक सन्दर्भो मे व्याख्या होने लगी। धार्मिक परम्पराओ को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा-परखा जाने लगा। जर्मनी के प्राच्यविद्या विशारदो की दृष्टि भारत की इस मूल्यवान धार्मिक सास्कृतिक, आध्यात्मिक निधि की ओर गई। मैक्समूलर और हरमन जैकोबी जैसे विद्वानो के नाम इस दिशा मे विशेष उल्लेखनीय है। जब भारतीय दर्शन, विशेषकर जैन दर्शन से विद्वानो का सम्पर्क हुआ और उन्होने अपने अध्ययन से यह जाना कि ईश्वर और परलोक को परे रखकर भी धर्म-साधना का चितन और अभ्यास किया जा सकता है तो उन्हे धार्मिक सिद्धान्त तथ्यपूर्ण लगे। जैन दर्शन की इस मान्यता में उनकी विशेष दिलचस्पी पैदा हुई कि ईश्वर सष्टि का कर्ता नही है । षद्रव्यो के मेल से सृष्टि की रचना स्वतः होती चलती है। यह एक गतिशील प्रक्रिया है। इस दृष्टि से सृष्टि का न आदि है न अन्त । यह अनादि अनन्त है। इसी प्रकार जीव को सुख-दुःख कोई परोक्ष सत्ता नहीं देती। सुख-दुख मिलते है जीव के द्वारा किये गये अपने कर्मों से । दुष्प्रवृत्त आत्मा जीव की शत्रु है और सद्प्रवृत्त आत्मा जीव की मित्र है।' जीव
१. अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्त च, दुपट्ठि अ सुपट्ठिओ ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र २०/३७
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