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इस प्रकार महावीर ने धर्म की साधना के केन्द्र मे मनुष्य को प्रतिष्ठित किया । मनुष्य अपने पुरुषार्थ द्वारा अपनी विकृतियो पर विजय प्राप्त कर अपनी चेतना का सर्वोपरि विकास कर सकता है । मनुष्य की विकृतियाँ है— क्रोध, मान, माया और लोभ । इन्हे कषाय कहा गया है । इन कषायो के मूल मे इच्छा की प्रधानता है । इच्छा या काम भावना कषायों में रूपान्तरित होती रहती है जिससे चेतना का विकास सम्भव नही हो पाता और ज्ञान, दर्शन, चारित्र व सुख को शक्तियाँ दवी पडी रहती है । साधक अपनी साधना द्वारा इच्छा पर नियन्त्रण कर श्रात्मअनुशासन द्वारा अपनी आत्मशक्तियो को पूर्ण रूप से जागृत और विकसित कर सकता है | चेतना की इस पूर्ण विकसित अवस्था को मोक्ष या मुक्ति कहा गया है । यही वास्तविक स्वतन्त्रता है । इस स्वतन्त्रता की प्राप्ति मे मनुष्य किसी अलौकिक सत्ता या शक्ति पर निर्भर नही है । वह इस अवस्था को प्राप्त करने में सक्षम और स्वतन्त्र है । जैन दर्शन मे इस प्रक्रिया को ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की सम्यक् श्राराधना द्वारा आत्मा के साथ लगे हुये कर्मों को क्षय करने की साधना कहा है ।
कमों को क्षय करने की यह साधना पद्धति किसी की बपौती नही है । यह सब के लिये खुली है। किसी भी जाति, वर्ण, मत, सम्प्रदाय, लिंग, देश, काल का व्यक्ति इस साधना द्वारा मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी है । इसीलिये महावीर ने अपनी विचारधारा या मत का नामअपने नाम पर नही रखा। उन्होने अपने विचार को आर्हत्, निर्ग्रन्थ, श्रमण और जिन कहा । 'आर्हत्' का अर्थ है जिसने अपनी साधना द्वारा आत्मशक्तियो का विकास कर पूर्ण योग्यता प्राप्त कर ली है। सभी प्रकार की विकृतियो - प्रान्तरिक शत्रु पर विजय प्राप्त करली है । 'निर्ग्रन्थ' का अर्थ है - जिसके मन मे कोइ गाठ नही है, जिसने कषाय रूपी विकारो की गाठ का उन्मूलन - उच्छेदन कर लिया है । जो गाठ रहित, कुठा रहित, निर्द्वन्द्व हो गया है । 'श्रमण' शब्द मे निहित श्रम के तीन रूप है - श्रम, सम, शम । 'श्रम' का अर्थ है - पुरुषार्थ अर्थात् श्रमण वह है जो अपनी साधना मे पुरुषार्थशील है, किसी पर निर्भर नही है, आत्मनिर्भर है । 'सम' का अर्थ है - समभाव - समता अर्थात् जिसकी दृष्टि मे किसी के प्रति रागद्वेष की भावना नही है । जो प्राणिमात्र को समता भाव से देखता है, जो सुख-दुख मे, हानि-लाभ मे, जीवन-मरण मे समभाव रखता है । 'शाम' का अर्थ है - शान्त, स्वनियन्त्ररण अर्थात् जिसने अपनी
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