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उत्तजनाओ को उपशात कर लिया है, जो सुख-दुःख मे उत्तेजित नही होता, उनके प्रति प्रतिक्रिया नहीं करता, जो प्रशात बना रहता है । 'जिन' का अर्थ है-विजेता । वाहरी वस्तु या प्रदेश का विजेता नही, वरन् आत्म विजेता। जिसने राग और द्वेष को जीत लिया है, वह है 'जिन' और उसके अनुयायी, उपासक है 'जैन'। इस प्रकार जैन धर्म किसी सम्प्रदाय, वर्ण, या वर्ग विशेप का धर्म न होकर आत्मनिर्भरता, पुरुषार्थ और विकृतियो पर विजय या नियन्त्रण प्राप्त करने का धर्म है। सक्षेप मे अपने पुरुषार्थ द्वारा आत्म से परमात्म बनने का धर्म है-जैन धर्म ।
अाज के चिन्तन मे सिक्यलेरिज्म (secularism) के जो तत्त्व उभरे है वे जैन धर्म के विचार से पर्याप्त मेल खाते हैं। सिक्युलेरिज्म का हिन्दी मे अनुवाद धर्म-निरपेक्षता किया गया है, जो भ्रामक है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ होता है-धर्म के प्रति उदासीन रहना, उससे अपना सम्बन्ध न जोडना, धर्म से विमुख या रहित होना जबकि सिक्युलेरिज्म की भावना है सभी धर्मों के प्रति आदर और सम्मान, धर्म के नाम पर किसी को ऊँचा-नीचा न समझना। दूसरे शब्दो मे सम्प्रदायातीत होना। भगवान महावीर ने धर्म की जो व्याख्या की है वह सम्प्रदायातीत व्याख्या है। इस दृष्टि से उनका धर्मचिंतन, सार्वजनीन, सर्वजनोपयोगी और सर्वोदयी है।
भगवान् महावीर ने धर्म के दो भेद किये हैं-अनगार धर्म अर्थात् मुनि धर्म और आगार धर्म अर्थात् गृहस्थ धर्म । मुनिधर्म वह धर्म है जिसमे साधक तीन करण, तीन योग से हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह का आजीवन त्याग करता है, अर्थात् मुनि इन पापकर्मों को मनवचन और काया से न करता है न दूसरो से करवाता है और न जो करते है उनकी अनुमोदना करता है। वह पच महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) धारी होता है । गृहस्थ धर्म वह धर्म है जिसमे साधक महाव्रतो की बजाय अणुव्रतो को धारण करता है । वह अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार स्थूल रूप से हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का त्याग करता है। वह सकल्पपूर्वक हिंसा न करने की प्रतिज्ञा लेता है । गृहस्थ धर्म की आगे की सीढी है-मुनि धर्म । गृहस्थ धर्म के नियम अर्थात् बारह व्रत एक प्रकार से किसी भी देश के आदर्श नागरिक की आचार सहिता है।
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