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भगवान् महावीर ने अपने सघ मे दोनो प्रकार के धर्मानुयायियो को सम्मिलित किया। उन्होने अपनी क्रान्तिकारी विचारधारा द्वारा धर्म की आड़ मे यज्ञो में दी जाने वाली पशुबलि का सख्त विरोध किया और कहा-"सव्वे जीवा वि इच्छति, जीविउ न मरिजिउ ।' अर्थात् सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। उन्होंने शूद्रो और स्त्रियो को भी सब प्रकार के धार्मिक अधिकार दिये और अपने सघ मे उन्हे दीक्षित किया । दास प्रथा के खिलाफ उन्होने जिहाद छेडा । मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को देखकर वे पसीज उठे और उन्होने कठोर अभिग्रह धारण कर, दासी बनी हुई राजकुमारी चन्दना के हाथो लबी तपस्या के बाद प्रथम बार आहार ग्रहण कर उसे सम्मानित किया । वौद्धिक कोलाहल के उस युग मे उन्होने अनेकान्तवाद के रूप मे सत्य को परखने और समझने का नया रास्ता बताकर सब प्रकार के विवादो को शान्त करने मे पहल की। बढती हुई भोगवृत्ति और सचयवृत्ति को उन्होने दुःख का कारण बताते हुए इच्छाओ को सीमित करने का उपदेश दिया और कहा कि आसक्ति ही परिग्रह का मल है। उन्होने जातिवाद पर तीव्र प्रहार किया और कहा कि जन्म से कोई ऊँचा-नीचा नही होता। व्यक्ति को ऊँचा-नीचा बनाते है उसके कर्म
कम्मुणा बभरणो होई, कम्मुणा होई खत्तिओ । वइसो कम्मुणा होई, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥२
ब्राह्मण कुल मे जन्म लेकर चाण्डाल जैसे कर्म करने वाला कभी ब्राह्मण नही हो सकता और शूद्र कुल मे जन्मा हुआ पुरुष ब्राह्मण जैसे कार्य करके ब्राह्मण हो सकता है। महावीर ने मानवीय मूल्यो और आत्मिक सद्गुणो को महत्त्व देते हुए कहा- । , , समयाए समणो होई, बभचेरेण बभणो ।
णारणेण य मुणि होई, तवेरण होई तावसो ॥3 अर्थात् समताभाव धारण करने से कोई श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य का पालन करने से ब्राह्मण होता है, ज्ञान की आराधना करने से मुनि होता है और तपस्या करने से तपस्वी होता है। १, दशवकालिक ६/१० २ उत्तराध्ययन २५/३३ ३ उत्तराध्ययन २५/३२